*ओवैसी बनाम बंगाल, बड़ा सियासी भूचाल!*
– *सज्जाद हैदर-* राजनीति के क्षेत्र में संविधान के अंतर्गत यह सभी को अधिकार प्राप्त है कि कोई भी राजनेता कहीं से भी चुनाव लड़ सकता है। किसी भी राजनेता के लिए किसी भी प्रकार की विशेष अनुमति की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि चुनाव में जो आवश्यकता होती है वह है जनाधार की। जिसके पास जनाधार है वह चुनाव में उतरकर अच्छा प्रदर्शन कर सकता है और चुनाव जीत कर विधानसभा अथवा लोकसभा पहुँच सकता है। इसीलिए प्रत्येक राजनेता अपनी-अपनी सियासी पार्टी को भरपूर ताकत देने का प्रयास करते हैं। क्योंकि, राजनीति का सिद्धान्त यही है कि जितना अधिक से अधिक जनाधार जुटा लिया जाए वह राजनीतिक पार्टी के स्वास्थ के लिए लाभदायाक है। इसलिए प्रत्येक राजनेता हर प्रकार की ताकत का भरपूर प्रयोग करते हैं।
बात शुरू होती है बिहार चुनाव से। तो बिहार के इसबार के विधानसभा चुनाव में उम्मीदों से दो कदम आगे बढ़कर प्रदर्शन करने से उत्साहित ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदउद्दीन औवेसी ने अब देश के कई राज्यों में चुनाव लड़ने का संकेत दे दिया है। उन्होंने ऐलान करते हुए कहा कि पार्टी अब पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में सियासी मैदान में उतरेगी। खास बात यह है कि अब तक की अपनी राजनीतिक यात्रा पर एआईएमआईएम कई राज्यों में अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुकी है इसी क्रिया को आगे बढाते हुए अब एआईएमआईएम राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करना चाह रही है। अपने सधे हुए सियासी अंदाज में एआईएमआईएम अध्यक्ष ने कहा कि मैं पश्चिम बंगाल उत्तर प्रदेश के साथ ही भारत का हर चुनाव लड़ूंगा। मुझे कोई भी नहीं रोक सकता। जिससे राजनीतिक गलियारों में खलबली मच गई। एआईएमआईएम अध्यक्ष ने सवाल उठाते हुए कहा कि क्या मुझे चुनाव लड़ने से पहले किसी भी सियासी पार्टी अथवा किसी भी सियासतदान से अनुमति लेनी होगी? एआईएमआईएम अध्यक्ष ने आगे कहा मैं बेजुबानों के लिए लड़ता हूं। मुझे पूरा हक है कि मैं अपनी पार्टी के विस्तार करूं। ओवैसी ने कहा कि हम किसी भी कीमत पर बंगाल जाएंगे। जिसमें हम मुर्शिदाबाद, माल्दा, दिनाजपुर के इलाकों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवाएंगे।
मुख्य प्रश्न यह है कि एआईएमआईएम अध्यक्ष ने अभी से ही पश्चिम बंगाल के चुनाव में उतरने का संकेत दे दिया जिससे कि इस ठण्ड के मौसम में भी सियासी गलियारों की हवा गर्म हो गई। आरोप प्रत्यारोप का दौर आरंभ हो गया। चुनाव की गणित तेज हो गई। पक्ष और विपक्ष अपने-अपने समीकरण साधने में लग गए। आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। अपने-अपने खेमे की रस्सियों को मजबूत किया जाना आरंभ हो गया। जातीय जनसंख्या के आधार पर मतों का आंकलन किया जाने लगा। क्योंकि, आज के समय में देश के अधिकतर राज्यों की चुनावी तस्वीर जो उभरकर सामने आ रही है वह साफ एवं स्पष्ट है। वर्तमान समय की राजनीति समाजवाद और विकासवाद से इतर हो चली है। शब्दों एवं भाषणों में तो विकासवाद एवं समाजवाद निरंतर मिलता है लेकिन क्या धरातल पर भी इसकी तस्वीर दिखाई देती है…? यह बड़ा सवाल है। क्योंकि जिस प्रकार से देश को जातीय आधार पर खोखला किया जा रहा है और जहर घोला जा रहा है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। मात्र सत्ता और कुर्सी के लिए देश की भोली-भाली जनता को जिस प्रकार से दो चक्की के पाट में पीसा जा रहा है। वह बहुत ही चिंताजनक है। जिसका असर सीधे-सीधे गरीब मजदूर एवं कारोबारी तबके पर पड़ रहा है। क्योंकि चुनाव के लिए जातिवाद के रूप में घोला जाने वाला जहर प्रत्याशी से लेकर संगठन स्तर में भी दिखाई देता है। क्योंकि राजनीति में जिस प्रकार से जातीय आधार पर संगठन को मजबूती प्रदान की जाती है वह खुले रूप से जातिवाद को बढ़ावा देते हुए तैयार की जाती है। यह अलग बात है कि शब्दों को गोल-मोल करके जलेबी बना दिया जाता है। ऐसा करने के पीछे मुख्य कारण होता है कि सियासत में संख्या बल का मुख्य किरदार होना। इसीलिए राजनीति में संख्या बल को ही आधार बनाया जाता है। इसी आधार पर पूरे चुनाव का खाका भी खींचा जाता है। सभी सियासी पार्टियां जातिगत समीकरण को ध्यान में रखकर चुनावी रूप रेखा को अपने अनुसार गढ़ने का प्रयास करती हैं। जिसके आधार पर मतों के ध्रुवीकरण का प्रयास किया जाता है। जिसमें आग उगलते हुए भाषण इस बात के प्रबल साक्ष्य हैं। टिकट के वितरण में पूर्ण रूप से जातिगत आधार को ध्यान में रखा जाता है। यदि शब्दों को बदलकर कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि वर्तमान समय की राजनीति अब जातिगत परिकरमा पूर्ण रूप से कर रही है। इसी क्रम को आगे तक जोड़ कर देखा जा रहा है। वर्तमान समय में जो राजनीतिक सरगर्मी में तेजी के साथ जो उछाल आया है वह कोई और नहीं बल्कि जातीय समीकरण की ही उपज है। खास बात यह है कि देश की अब तक की राजनीति मात्र दो बिन्दुओं पर आधारित रहती थी जिसको राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने अनुसार परिभाषित करती थीं जिसको सियासत की दुकान में सेकुलरवाद और सांप्रदायिकवाद के नाम से जाना जाता रहा। जब सियासी मंचों से आग उगलते शब्दों के बाण चलाए जाते थे तो धरातल पर दो धड़ों में मतदाता बंट जाया करता था। परन्तु इस बार के बिहार चुनाव ने जिस प्रकार से सेकुलरवाद की दुकान को गहरा झटका दिया है वह चौकाने वाला है क्योंकि बिहार के चुनाव में एआईएमआईएम पार्टी को सीमांचल के क्षेत्र में मुस्लिम जातीय मतदाताओं को जिस प्रकार से अपने पाले में किया गया वह सेकुलरवाद के ठेकेदारों के लिए खतरे की घंटी बजा देने वाला है। क्योंकि एआईएमआईएम का इस बार का बिहार चुनाव साफ शब्दों में बहुत कुछ संदेश देता है। क्योंकि, जिस प्रकार से एआईएमआईएम ने बिहार की धरती पर मुस्लिम क्षेत्रों के मतों पर अपना प्रभाव दिखाया है उससे सीधे-सीधे महागठबंधन को ही नुकसान पहुँचा है। क्योंकि एआईएमआईएम के आने से पहले यह सभी मत महागठबंधन के ही खाते में जाया करते थे लेकिन इस बार महागठबंधन की झोली से निकलकर एआईएमआईएम के रूप में अपना नया ठिकाना खोज लिया। जिससे कि महागठबंधन का समीकरण बिगड़ गया और भारी सियासी नुकसान हुआ। सियासत में कुछ नुकसान अदृश्य भी होते हैं जिनको साधारण रूप से नहीं देखा जा सकता। क्योंकि हार और जीत तो स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाती है जिसकी गणना सरलता पूर्वक की जा सकती है। परन्तु जिन सीटों पर सीधे-सीधे टक्कर नहीं हो पाती तो इस स्थिति में नुकसान का आंकलन आसानी से नहीं किया जा सकता। वह यह कि मतों का बिखराव। क्योंकि चुनाव में मतों का बिखराव बहुत बड़ा महत्व रखता जोकि किसी भी प्रत्याशी को हरा देता है। मतों के बिखराव का मुख्य कारण होता है कि चुनाव में गर्मागरम भाषण। जब भी किसी भी चुनाव में आग उगलते हुए भाषण मतदाताओं के कानो से जाकर टकराते हैं जोकि एक जाति अथवा एक वर्ग के समर्थन में दिए जाते हैं तो स्वाभाविक है कि दूसरी जाति अथवा दूसरा वर्ग स्वयं उसके विरोध में लामबंद हो जाता है जिसका मौका भांपते ही दूसरे पार्टी के राजनेता उन मतदाताओं को तुरंत अपने पाले में करने के लिए हर प्रकार का पैंतरा अपनाते हैं जिसमें वह सफल भी हो जाते हैं। जोकि बिहार के चुनाव में ऐसा ही हुआ।
बंगाल की राजनीति में इसी समीकरण को भांपते हुए हवाएं गर्म हो गई हैं। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को आने वाले बंगाल चुनाव डर में सताने लगा है कि कहीं बिहार जैसा ही दृश्य बंगाल में न दोहराया जाए। क्योंकि बंगाल में अगर मुस्लिम मतदाता एआईएमआईएम की झोली में जाते हैं तो निश्चित जान लीजिए की दृश्य कुछ अलग ही होगा। क्योंकि बंगाल की धरती पर मौजूदा सरकार का आधार कुछ इसी प्रकार ही है। क्योंकि बंगाल की विधानसभा में लगभग 100 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। जोकि अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग संख्या के आधार पर हैं। जैसे कि मुर्शिदाबाद में तो मुर्शिदाबाद मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र है यहाँ पर 61 पतिशत प्रतिशत मतदाता मुस्लिम बिरादरी से हैं। जोकि तृणमूल कांग्रेस का भारी वोट बैंक है। लेकिन एआईएमआईएम के पहुँचने पर यदि बिहार की तरह तस्वीर बदली तो तृणमूल को भारी नुकसान होना तय है। इसी प्रकार से मालदा जिला है जहाँ पर मुस्लिम आबादी बहुत अधिक है। यहां पर मुस्लिम आबादी 50 पतिशत प्रतिशत से ऊपर है। यदि दक्षिणी दीनाजपुर की बात करें तो दीनाजपुर में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 46 पतिशत प्रतिशत के आसपास है। जोकि सियासी गणित के आधार पर बहुत ही भारी संख्या है। यदि बात कूचबिहार जनपद की करें तो वहां पर मुस्लिम आबादी लगभग 26 पतिशत प्रतिशत के आसपास है जोकि तृणमूल कांग्रेस का कोर वोट बैंक है। अगर वीरभूमि जनपद की बात करें तो यहाँ पर मुस्लिम मतदाओं की संख्या लगभग 40 पतिशत प्रतिशत के आसपास है जोकि निर्णयक भूमिका में हैं। जोकि किसी भी प्रत्यासी को हराने और जिताने की क्षमता रखते हैं। इसी प्रकार बंगाल की धरती पर लगभग 100 से अधिक विधानसभा सीटें हैं जिनपर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं इसलिए बंगाल की सियासत को डर सता रहा कि अगर एआईएमआईएम पार्टी बंगाल के चुनाव में कदम रखती है और जातीय ध्रुवीकरण होता है इसका सीधा नुकसान तृणमूल कांग्रेस को होगा। अगर सीमांचल की तर्ज पर बंगाल में एआईएमआईएम अध्यक्ष ने अपना सियासी समीकरण फैलाया तो परिणामों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है।