*सहिष्णुता और असहिष्णुता के मुद्दे पर*
*डिजिटल मीडिया पर लगाम जरुरी थी*
*-अशोक भाटिया-* वेब सीरीज के बढ़ते जाल, ऑडियो-विजुअल संदेश और ओटीटी और दूसरे ऑनलाइन प्लेटफार्म पर आने वाले कंटेट को लेकर भारत में आम आदमी की चिंता बढ़ती जा रही थी। कई ऐसे कंटेट नजर आने लगे थे जो नुकसानदायक, गलत संदेश देने वाले और साथ ही कानून का उल्लंघन भी कर रहे थे। साथ ही सूप्रीम कोर्ट और देश भर के उच्च न्यायलयों में भी याचिकाएं दायर कर हस्तक्षेप करने की मांग उठ रही थी। कोर्ट से अपील की जा रही थी कि ओटीटी और ऑनलाइन मीडिया के लिए केन्द्र सरकार से एक रेगुलेटरी मेकेनिज्म बनाने की मांग भी तेज हो गयी थी। ऐसे में केन्द्र सरकार को एक बड़ा फैसला लेना ही पड़ा। मंत्रीमंडल सचिवालय ने कानूनों में कुछ संशोधन करते हुए आदेश दिया कि अब ऑडियो-विजुअल और न्यूज से जुड़े कंटेट अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय की निगरानी में आएंगे। इसके तहत ऑनलाइन कंटेट प्रोवाईडरों द्वारा उपलब्ध कराई गई फिल्म, ऑडियो-विजुअल कार्यक्रम और ऑनलान प्लेटफआर्म पर आने वाले समाचार और समसामयिक विषय वस्तु भी शामिल हैं। मीडिया का कोई भी माध्यम हो जिससे समाज और देश प्रभावित होता हो, उस पर निगरानी की व्यवस्था तो होनी ही चाहिए। ओटीटी प्लेटफार्म और न्यूज पोर्टल बेलगाम ढंग से चल रहे हैं, इन पर अंकुश तो होना चाहिए। केन्द्र सरकार ने इस दिशा में एक अच्छा कदम उठाया है।
सरकार को यह भी देखना होगा कि ओटीटी प्लेटफार्म और अन्य न्यूज पोर्टल क्या परोस रहे हैं। इन माध्यमों का समाज के प्रति व्यवहार केवल उत्पाद और उपभोक्ता का हो चुका है, जिसने भाषायी संरचना को प्रभावित करके रख दिया है। केवल हैडलाइन्स ऐसी आकर्षक बनाई जाती है जो लोगों को क्लिक करने को मजबूर कर देती है। बाद में पता चलता है कि हैडलाइन्स के अनुरूप सामग्री तो है ही नहीं। टीआरपी का विकार तो टेलीविजन की दुनिया में पहले ही है लेकिन अब यह विकार डिजिटल प्लेटफार्मों पर विस्तार पा चुका है। ओटीटी प्लेटफार्मों पर जो सीरियल प्रसारित किए जा रहे हैं उनमें तो सैक्स, हिंसा और अपशब्दों की भरमार है। न्यूज वेबसाइटों पर सूचनाओं के प्रसार और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने की प्रतिद्वंद्विता के लिए अधकचरी सूचनाओं की भीड़ इकट्ठी हो चुकी है। किसी भी सूचना को किसी का सामाजिक या राजनीतिक कद बढ़ाने या फिर किसी की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
देश और समाज में समाचारों से परत उतरे यह तो ठीक है लेकिन किसी भी घटना को तोड़मरोड़ कर पेश करने से मामले उलझ भी जाते हैं। लोगों के लिए विमर्श बदलने की कोशिशें की जाती हैं जिससे गलत अवधारणाएं सृजित हो रही हैं। सत्य का कोई समय और काल नहीं होता। हमने कई मामलों में देखा है कि आभासी सच जो लगातार परोसा गया उसके पीछे एक सच भी होता है, जिसे खोजा ही नहीं गया। अधूरा सत्य परोस कर सवाल दर सवाल दागे जा रहे हैं, जिसका कोई उत्तर नहीं मिलता। दरअसल जो सवाल दागे जा रहे हैं, उनका कोई औचित्य और तर्क नहीं होता। तर्कहीन सवालों का क्या उत्तर होगा?डिजिटल मीडिया या सोशल मीडिया एक भीड़ तंत्र को विकसित करने का काम कर रहा है जो समाज और देश के लिए घातक साबित हो रहा है।कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में एक न्यूज़ चैनल के विवादित कार्यक्रम को लेकर सुनवाई चल रही थी। तब कोर्ट के साथ-साथ देशभर में मीडिया रेगुलेशन को लेकर बहस तेज हो गई। इस दौरान कोर्ट में बहस के बीच केंद्र सरकार ने कहा था कि टीवी और प्रिंट से पहले डिजिटल मीडिया पर कंट्रोल की जरूरत है।
सहिष्णुता और असहिष्णुता के मुद्दे पर डिजिटल मीडिया काफी उन्मादी दिखाई दिया। असहमति के स्वरों को एक बड़े विवाद में बदल दिया गया। कई मामलों में आनलाइन पोर्टल के जरिये दिए गए कंटेंट से भी अपराधों या दंगों को बढ़ावा मिला। यद्यपि सभी राज्यों में साइबर ब्रांच इस पर नजर रखती है, परन्तु इसके लिए कोई रेगुलेशन न होने से कई बार लोग बच निकलते रहे। तस्वीरें कहां की होती हैं और उन्हें थोड़ा बदल कर परोस दिया जाता है। लोगों के पास फैक्ट चैक करने का समय नहीं होता। ऐसी तस्वीरों या भ्रामक सूचनाओं के एक बार सार्वजनिक होने के बाद तुरन्त वापस लेना आसान नहीं होता। लोग भी बिना सोचे-समझे वायरल कर देते हैं। कई बार तो समझ ही नहीं आता कि मीडिया बाजार को नचा रहा है या मीडिया बाजार के इशारे पर नाच रहा है। संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की आजादी दी गई है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने इसे प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि अभिव्यक्ति की आजादी उसी सीमा तक है जहां तक आप किसी कानून का उल्लंघन नहीं करते और दूसरे को आहत या नुक्सान नहीं पहुंचाते हैं। अगर आपके किसी पोस्ट या फिर पोस्ट के शेयर करने से किसी की भावना आहत होती है या दो समुदायों के बीच नफरत पैदा होती है तो आपको जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है।