सुधीर के बोल : मन मे विचारों के प्रवाह समय से भी अधिक गतिमान है…

सुधीर के बोल : मन मे विचारों के प्रवाह समय से भी अधिक गतिमान है…

सारे उपद्रव की शुरुआत मन से ही होती है और जगत कर्म या आचरण को बदलने में लगा हुआ है, उपदेशक भी यही बता रहे है कि अपने आचरण अच्छे रखो, चित्त और आचरण में विरोधाभास है यही से अंतर्द्वंद हो रहा है, जिसे हम पाखण्ड भी कह सकते है। रोचक बात है जो साधु संत आचरण सुधारने का उपदेश दे रहे है उनका स्वयं चित्त आसक्ति सेओतप्रोत है। आज के साधु जितना समाज का नुकसान कर रहे है उतने तोराजनेतिक भी नही कर रहे है। आप दो राजनेताओं को सत्ता के लिये गड़जोड करते देख सकते हो परन्तु दो साधुओं की संस्थाओं को विलय होते नही देख सकते हो। जिस प्रकार पौधे को उन्नत किये बिना अच्छे फल की प्राप्ति असम्भव है उसी प्रकार दूषित विचार से किये गए कार्य से फल असम्भव है। अनासक्ति से किया हुआ कर्म बंधनमुक्त होता है। वह तप भी जिसमे मोक्ष की आकांक्षा हो या पद, धन प्रतिष्ठा सब असक्तियुक्त है यह सब वासनाओं के विस्तार है। जहाँ पाने की इच्छा है वह कर्म अनासक्ति लिए नही हो सकता। कर्म कुछ भी न पाने हेतु है तो बता दू सोच कर किया कर्म आसक्ति को ही प्राप्त होता है मात्र शांत चित्त से किया हुआ कर्म ही अनासक्त हो सकता है, कर्म महत्वपूर्ण नही है। आप महत्वपूर्ण हो आपका अंतर्मन शांत है तो कर्म भी मुक्तता लिए होगा। बाहरी कर्म को कितना भी शिष्टाचार का आवरण पहना दो, कर्म के मूल आप हो, उद्गम आपसे हो रहा है। जो व्यक्ति सच्चे व संवेदनशील होते है वह मन के विरूद्ध आचरण करते करते अवसादग्रस्त हो जाते है, चाहते कुछ है सभ्यतावश आचरण कुछ और करना है अंतर्द्वंद्व में जीवन कष्ट में है ऐसे व्यक्तियों का।

कानपुर में 8 पुलिसकर्मियों को एक व्यक्ति हत्या कर देता है, क्या यह कृत्य एक दिन का परिणाम है? नही
निर्माण अंधेरे में होता है यह हत्या केवल अशांत चित्त का प्रकटीकरण है हत्या का जन्म तो महीनों, वर्षो पहले चेतना में आकृति लेने लग गया था, ऐसा नही संकेत भी मिल रहे होंगे पर व्यवस्था ने पाला पोसा इस विचार को। आधुनिकता में कर्म की शिक्षा दी जा रही है परिणाम सामने है। कर्म को बदलने की शिक्षा पागलपन है। आप अभिव्यक्ति को बदलने की चेष्ठा विचार के निर्माण को बदल कर ही कर सकते हो। जिस प्रकार राजनेतिक चित्त का व्यक्ति भेष बदलकर धार्मिक चोला पहन लें तब धर्म मे राजनीति करेगा टीवी डिबेट में आप धार्मिक चोले में अनेको राजनेतिक चित्त के व्यक्ति देखते होंगे उनका अंतस, चित्त राजनेतिक है। कहने का अर्थ आचरण कुछ भी हो कर्म का फल चित्त के भाव से ही फलित होगा।आज हम बच्चों को शिक्षा देते हैं झूठ मत बोलो, गलत काम मत करो पर हम यह नहीं सिखाते हैं की मन में भाव गलत न लाना, केवल कर्म को सही रखने की सलाह दे रहे है। कर्म सूचक है आपके अंतस का, अन्तस् धर्म से, आचरण नीति से सम्बंधित है।धर्मिक व्यक्ति अनिवार्य रूप से नैतिक होगा, पर नैतिक व्यक्ति धर्मिक हो आवश्यक नही क्योंकि आचरण बदलना नैतिकता है और चित्त शांत रखना धार्मिकता है।इसलिये नैतिक मनुष्य कष्ट में जीते है, क्योकि वह स्वयं से अंतर्द्वंद में है।

संवाददाता अमित गोस्वामी की रिपोर्ट…