लीवर कैंसर से बचाव और इलाज के क्षेत्र में आ सकता है बड़ा बदलाव

लीवर कैंसर से बचाव और इलाज के क्षेत्र में आ सकता है बड़ा बदलाव

-सीयूएसबी के बायोटेक विभाग के पीएचडी के तीन विद्यार्थियों का थीसिस चर्चा में

गया। दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालयों (सीयूएसबी) के बायो-टेक्नोलॉजी विभाग के पीएचडी पाठ्यक्रम के प्रथम बैच के तीन विद्यार्थियों ने सफलतापूर्वक अपने थीसिस को डिफेंड कर लिया। जन सम्पर्क पदाधिकारी (पीआरओ) मो.मुदस्सीर आलम ने बताया कि पीएचडी छात्रा नादरा सदफ, घनश्याम कुमार सत्यपाल एवं संतोष कुमार मिश्रा ने

विशेषज्ञों के समक्ष दिए गए एक खुली प्रस्तुति में अपने पीएचडी कार्य का सफलतापूर्वक बचाव किया। इस अवसर पर स्कूल ऑफ अर्थ, बायोलॉजिकल एंड एनवायर्नमेंटल साइंसेज के डीन प्रोफेसर राम कुमार, बायोटेक्नोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर दुर्ग विजय सिंह, प्रोफेसर रिज़वानुल हक़ के साथ – साथ समिति के सदस्यगण, संकायगण, शोधार्थी एवं छात्र – छात्राएं मौजूद थे।

पीएचडी के विद्यार्थियों के सफल प्रस्तुति पर कुलपति प्रोफेसर कामेश्वर नाथ सिंह ने उन्हें बधाई दी है और ये आशा जताई है कि शोध से मिले विभिन्न रोगों के इलाज के लिए बहुमूल्य परिणामों से देश और दुनिया को स्वास्थ्य के क्षेत्र में लाभ पहुंचेगा। नाद्रा सदफ ने पीएचडी प्रोफेसर रिजवानुल हक के मार्गदर्शन में की है और उन्होंने अपने पीएचडी थीसिस की प्रस्तुति प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. बलराज मित्तल (बाहरी परीक्षक), एसजीपीजीआई, लखनऊ की उपस्थिति में दी। उनका शोधकार्य प्राकृतिक रूप से उपलब्ध घटकों के माध्यम से लीवर कैंसर के खिलाफ दवा की खोज पर था।

उन्होंने लीवर कैंसर के इलाज के लिए करक्यूमिन और आर्सेनिक ट्राईऑक्साइड के संयोजन का इस्तेमाल किया। उनका प्रयोगात्मक डेटा आश्वस्त करता है कि दवा संयोजन का कैंसर सेल एपोप्टोसिस पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उनके अध्ययन से पता चलता है कि आर्सेनिक ट्राईऑक्साइड और करक्यूमिन संयोजन के साथ कैंसर कोशिकाओं के उपचार से सेलुलर साइटोटोक्सिसिटी का समावेश होता है। ये सेल प्रसार का निषेध, कॉलोनी गठन क्षमता में कमी, घाव भरने में अवरोध और

एपोप्टोटिक संबंधित प्रोटीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है। जो इस संयोजन को एक प्रमुख विकल्प बनाता है और भविष्य में लीवर कैंसर के इलाज के लिए उपयोगी हो सकता है। दोनों दवाएं सस्ती होने के साथ-साथ आसानी से उपलब्ध भी हैं।इसलिए उनके उपयोग अनुकूल हैं और भविष्य में इलाज के उद्देश्य से उपयोग किए जाने पर अधिकांश लोगों द्वारा अपनाए जाने की संभावना है।

घनश्याम कुमार सत्यपाल ने बायोटेक्नोलॉजी विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ० नीतीश कुमार की देखरेख में अपनी पीएचडी पूरी की है।उन्होंने अपनी पीएचडी थीसिस को विशेषज्ञ के रूप में उपस्थित प्रोफेसर अरविंद कुमार, जैव प्रौद्योगिकी विभाग, बीएचयू के समक्ष ओपन प्रेजेंटेशन के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनका शोध बैक्टीरिया में आर्सेनिक परिवर्तन से जुड़े जीन के अलगाव और कार्यात्मक लक्षण वर्णन पर आधारित था। आर्सेनिक दूषित स्थलों पर स्वदेशी सूक्ष्मजीव समुदायों का उपयोग

करके स्वस्थानी बायोरिमेडिएशन तकनीक की प्रभावशीलता को बेहतर ढंग से समझने और विकसित करने के लिए यह अध्ययन महत्वपूर्ण है। वहीं, श्री संतोष कुमार मिश्रा ने डॉ. कृष्ण प्रकाश, सहायक प्राध्यापक, बायोटेक्नोलॉजी विभाग के पर्यवेक्षण में “ए स्टडी ऑन ट्रंकेटेड एंड वाइल्ड-टाइप इंटरफेरॉन रेगुलेटरी फैक्टर -1 (आईआरएफ-1) इन नॉर्मल एंड ट्रांसफॉर्मेड मैमलियन सेल लाइन शीर्षक पर पीएचडी की। उन्होंने प्रो. आरपी सिंह (बाहरी परीक्षक), कैंसर जीव विज्ञान प्रयोगशाला, जीवन विज्ञान स्कूल, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की उपस्थिति में अपने पीएचडी कार्य का

सफलतापूर्वक बचाव कियाइन का अपने शोध में ई.कोली में जीन को सफलतापूर्वक क्लोन किया। साथ ही ई.कोली साइटोसोल में पुनः संयोजक प्रोटीन को घोलने के लिए एक विधि विकसित की। उनके अध्ययन का उद्देश्य गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के आणविक तंत्र को समझना था जहां इस तरह की छोटी आईआरएफ -1 अभिव्यक्ति की सूचना दी जाती है। उनके अध्ययन ने कैंसर आणविक जीव विज्ञान के ज्ञान को बढ़ाया है। जिससे कटे हुए आईआरएफ -1 के कारण होने वाले ऑन्कोजेनेसिस के तंत्र को आसानी से समझा जा सके, जो स्वाभाविक रूप से गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर रोगी ऊतक में पाया जाता है।

“हिन्द वतन समाचार” की रिपोर्ट