राष्ट्रीय राजनीति में ममता की भूमिका का प्रश्न – कृष्ण प्रताप सिंह…
अब जब तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने अपने दावे के मुताबिक एक पैर से बंगाल जीत लिया है और कह रही हैं कि उनके बंगाल ने भारत को बचा लिया है, बहुत स्वाभाविक है कि उनके दो पैरों से दिल्ली जीतने के दावे पर चर्चाएं हों।
बहरहाल, आज की तारीख में उनके इस दावे से असहमति नहीं जताई जा सकती कि बंगाल की जनता ने भारत को बचा लिया है। क्योंकि अब किसी से भी छिपा नहीं कि अनेकता में एकता वाले भारत के विचार को बचाने की जरूरत है। इस चुनाव में वे जीत जाते तो निस्संदेह उस भारत के भविष्य को लेकर नये और ज्यादा गम्भीर अंदेशे पैदा होते। फिर भी उनकी जीत पर देश के गैरभाजपाई विपक्षी दलों, खासकर क्षत्रपों का गद्गद होना अस्वाभाविक नहीं लगता। जब भाजपा ने सहयोगियों को निगलकर अपना विस्तार करने की पुरानी आदत के अनुसार उनके गले पर दबाव बढ़ाया तो उन्होंने बहादुरीपूर्वक उसका मुकाबला किया और सिद्ध करके मानीं कि वह सेर है तो वे सवा सेर हैं। या कि बंगाल की शेरनी की उनकी पुरानी पहचान यों ही नहीं बनी है। मोदी से भिड़ा दिये जाने पर भी दैन्य या पलायन का विकल्प नहीं चुना। उन्होंने यह भी साबित किया कि ‘महानायकÓ नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और उनके सिपहसालार-ए-खास अमित शाह की ‘चाणक्य नीतिÓ उनकी राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की कितनी भी दुर्दशा कर सकती हों, उनके जैसे क्षत्रपों को परास्त नहीं कर सकतीं।
बंगाल के साथ आये चार अन्य राज्यों के चुनाव नतीजे भी, एक के बाद एक शिकस्तों से त्रस्त गैरकांग्रेसी विपक्षी दलों के लिए सुकून की खबरें लाये हैं। इस कदर कि भाजपा असम व पुड्डुचेरी में अपनी जीत का जश्न भी नहीं मना पा रही। केरल में वामदलों ने अपनी सत्ता बचाकर इतिहास रच डाला है तो तमिलनाडु में द्रमुक ने अन्नाद्रमुक व भाजपा के गठबंधन की कलाइयां मरोड़कर उससे सत्ता छीन ली है। निश्चित ही इससे उन राज्यों के क्षत्रपों को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलेगी, जहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।
इसलिए यहां एक पल रुककर क्षत्रपों के अतीत व वर्तमान के आईने को सामने करें तो ममता से कोई नयी उम्मीद पालने से पहले थोड़ा वस्तुनिष्ठ हो जाने की जरूरत की उपेक्षा नहीं कर सकते। यकीनन, पिछले वर्षों में कांग्रेस के ‘आत्मसमर्पणÓ के बाद इन क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं और मौकापरस्ती ही भाजपा व नरेन्द्र सरकार के विश्वसनीय राष्ट्रीय विकल्प के निर्माण के सबसे ज्यादा आड़े आती रही हैं। मिसाल के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, मायावती व अजित सिंह का गठबंधन भाजपा को नहीं हरा पाया तो वे अलग-अलग होकर अपने-अपने खोल में दुबक गए और मायावती ने यहां तक घोषणा कर दी कि 2022 का विधानसभा चुनाव वे अकेले ही लड़ेंगी। क्षत्रपों के प्रभुत्व वाले दूसरे राज्यों में भी इस तरह की नजीरों की कमी नहीं है। ऐसे में उनके द्वारा किसी नये विकल्प का निर्माण कर उसमें लोगों का भरोसा कैसे जमाया जा सकता है?
इसलिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ममता आगे चलकर दूसरे क्षत्रपों से अलग सिद्ध होंगी? ठीक है कि वे बंगाल में बेहतर रणनीति अपनाकर अपनी पार्टी को जिता ले गई हैं और पूर्वोत्तर के द्वार बंगाल को भाजपा के लिए अभेद्य लौहदुर्ग में बदल देने का सारा श्रेय उन्हें ही जाता है। इतना ही नहीं, इससे राष्ट्रीय राजनीति में जो आलोडऩ पैदा होगा, वह भाजपा की चिन्ताएं जरूर बढ़ायेगा। लेकिन अपने राज्य में भाजपा की अस्मिता व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का मुकाबला करते हुए उन्होंने जिस तरह बंगाल की बेटी की अपनी छवि गढ़ी, ‘बाहरीÓ का सवाल उठाया और जवाबी ध्रुवीकरण कराया, यहां तक कि चाणक्य नीति बरतकर वाम दलों के गठबंधन की घटक कांग्रेस से खुद को वाकओवर दिलाया, वह राष्ट्रीय राजनीति में उनकी सक्रियताओं व संभावनाओं के बहुत माफिक नहीं बैठने वाला। क्षत्रपों के बारे में इस पुरानी धारणा को भी वे शायद ही तोड़ पायें कि उन्हें अपने राज्यों के या अपने संकीर्ण राजनीतिक हित ही सर्वोपरि दिखते हैं और वे राष्ट्रीय मुद्दों पर तर्कसंगत दृष्टिकोण नहीं अपना पाते।
बहरहाल, आज की तारीख में उनके इस दावे से असहमति नहीं जताई जा सकती कि बंगाल की जनता ने भारत को बचा लिया है। क्योंकि अब किसी से भी छिपा नहीं कि अनेकता में एकता वाले भारत के विचार को बचाने की जरूरत है। इस चुनाव में वे जीत जाते तो निस्संदेह उस भारत के भविष्य को लेकर नये और ज्यादा गम्भीर अंदेशे पैदा होते। फिर भी उनकी जीत पर देश के गैरभाजपाई विपक्षी दलों, खासकर क्षत्रपों का गद्गद होना अस्वाभाविक नहीं लगता। जब भाजपा ने सहयोगियों को निगलकर अपना विस्तार करने की पुरानी आदत के अनुसार उनके गले पर दबाव बढ़ाया तो उन्होंने बहादुरीपूर्वक उसका मुकाबला किया और सिद्ध करके मानीं कि वह सेर है तो वे सवा सेर हैं। या कि बंगाल की शेरनी की उनकी पुरानी पहचान यों ही नहीं बनी है। मोदी से भिड़ा दिये जाने पर भी दैन्य या पलायन का विकल्प नहीं चुना। उन्होंने यह भी साबित किया कि ‘महानायकÓ नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और उनके सिपहसालार-ए-खास अमित शाह की ‘चाणक्य नीतिÓ उनकी राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की कितनी भी दुर्दशा कर सकती हों, उनके जैसे क्षत्रपों को परास्त नहीं कर सकतीं।
बंगाल के साथ आये चार अन्य राज्यों के चुनाव नतीजे भी, एक के बाद एक शिकस्तों से त्रस्त गैरकांग्रेसी विपक्षी दलों के लिए सुकून की खबरें लाये हैं। इस कदर कि भाजपा असम व पुड्डुचेरी में अपनी जीत का जश्न भी नहीं मना पा रही। केरल में वामदलों ने अपनी सत्ता बचाकर इतिहास रच डाला है तो तमिलनाडु में द्रमुक ने अन्नाद्रमुक व भाजपा के गठबंधन की कलाइयां मरोड़कर उससे सत्ता छीन ली है। निश्चित ही इससे उन राज्यों के क्षत्रपों को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलेगी, जहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।
इसलिए यहां एक पल रुककर क्षत्रपों के अतीत व वर्तमान के आईने को सामने करें तो ममता से कोई नयी उम्मीद पालने से पहले थोड़ा वस्तुनिष्ठ हो जाने की जरूरत की उपेक्षा नहीं कर सकते। यकीनन, पिछले वर्षों में कांग्रेस के ‘आत्मसमर्पणÓ के बाद इन क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं और मौकापरस्ती ही भाजपा व नरेन्द्र सरकार के विश्वसनीय राष्ट्रीय विकल्प के निर्माण के सबसे ज्यादा आड़े आती रही हैं। मिसाल के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, मायावती व अजित सिंह का गठबंधन भाजपा को नहीं हरा पाया तो वे अलग-अलग होकर अपने-अपने खोल में दुबक गए और मायावती ने यहां तक घोषणा कर दी कि 2022 का विधानसभा चुनाव वे अकेले ही लड़ेंगी। क्षत्रपों के प्रभुत्व वाले दूसरे राज्यों में भी इस तरह की नजीरों की कमी नहीं है। ऐसे में उनके द्वारा किसी नये विकल्प का निर्माण कर उसमें लोगों का भरोसा कैसे जमाया जा सकता है?
इसलिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ममता आगे चलकर दूसरे क्षत्रपों से अलग सिद्ध होंगी? ठीक है कि वे बंगाल में बेहतर रणनीति अपनाकर अपनी पार्टी को जिता ले गई हैं और पूर्वोत्तर के द्वार बंगाल को भाजपा के लिए अभेद्य लौहदुर्ग में बदल देने का सारा श्रेय उन्हें ही जाता है। इतना ही नहीं, इससे राष्ट्रीय राजनीति में जो आलोडऩ पैदा होगा, वह भाजपा की चिन्ताएं जरूर बढ़ायेगा। लेकिन अपने राज्य में भाजपा की अस्मिता व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का मुकाबला करते हुए उन्होंने जिस तरह बंगाल की बेटी की अपनी छवि गढ़ी, ‘बाहरीÓ का सवाल उठाया और जवाबी ध्रुवीकरण कराया, यहां तक कि चाणक्य नीति बरतकर वाम दलों के गठबंधन की घटक कांग्रेस से खुद को वाकओवर दिलाया, वह राष्ट्रीय राजनीति में उनकी सक्रियताओं व संभावनाओं के बहुत माफिक नहीं बैठने वाला। क्षत्रपों के बारे में इस पुरानी धारणा को भी वे शायद ही तोड़ पायें कि उन्हें अपने राज्यों के या अपने संकीर्ण राजनीतिक हित ही सर्वोपरि दिखते हैं और वे राष्ट्रीय मुद्दों पर तर्कसंगत दृष्टिकोण नहीं अपना पाते।
हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…