जीवन प्रक्रिया को सहज-सरल बनायें…

जीवन प्रक्रिया को सहज-सरल बनायें…

 

जहां जीवन है, वहां उसके निर्वाह की आवश्यकता भी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। यह भी सच है- आवश्यकतापूर्ति के लिए पदार्थ और पदार्थ-प्राप्ति के लिए पैसा या उस जैसा दूसरा कोई भी साधन आवश्यक है। किन्तु वहां एक तथ्य समझना और शेष रह जाता है। वह यह है कि मनुष्य जितना कार्य आवश्यकता नहीं करता, उतना वृत्तिवश करता है। प्रत्येक वृत्ति में वासना-पूर्ति की भावना होती है। वे व्यक्ति में कृत्रिम आवश्यकता पैदा करती है। उनसे शुद्ध आवश्यकताओं पर परदा गिर जाता है। मनुष्य नहीं समझ पाता-क्या आवश्यक है और क्या काल्पनिक? शुद्ध आवश्यकतावश व्यक्ति बहुत थोड़ा कार्य करता है। अधिकांश कार्यों के पीछे वृत्ति की ही प्रेरणा होती है। अनगिनत मिठाइयां खायी जाती हैं, उनका हेतु भूख-शांति है या स्वाद-वृत्ति?

एक आदमी अपने रहने के लिए दो-चार मकान या महल बना लेता है? यह क्या है? आवश्यकता है कि ऐशो-आराम की वृत्ति? क्या सभी कपड़े आवश्यकता के लिए पहने जाते हैं? करोड़ों की पूंजी क्या आवश्यक होती है? इसी प्रकार एक ओर आमोद-प्रमोद, बोल-चाल जैसे जीवन के साधारण कार्य और दूसरी ओर धन-संग्रह जैसे विशेष कार्य, ये सभी बहुलतया वृत्ति-प्रेरित होते हैं, झूठी भूख या कृत्रिम भूख से आदमी खाता है, उससे वासना पूरी होती है, शरीर नहीं बनता। यही बात कृत्रिम आवश्यकताओं की है। उससे प्रेरित को मनुष्य संग्रह करता है, आनन्द नहीं मिलता। पैसे के प्रति जो अधिक सर्वोपरि आकर्षण है, उसका हेतु कृत्रिम आवश्यकता है। यह भटकाने वाली भूल है। चारित्रिक विकास के लिए इसका परिमार्जन करना होगा, शुद्ध आवश्यकता और कृत्रिम आवश्यकता का विवेक जागृत करना होगा।

आर्थिक बोझ और अनैतिकता:- सामाजिक परम्परा जितनी जटिल होती है, अर्थ का बोझ जितना अधिक होता है, उतनी ही कठिनाइयां जीवन में भी आती है। अनैतिकता बढ़ने में लालसा मुख्य कारण है। परिस्थितियों से वह उबल उठती है। परिस्थितियां सामाजिक धारणाओं या मान्यताओं से निर्मित होती हैं। सामाजिक धारणाओं को बदलने बिना वे नहीं बदलती। परिस्थितियों के बदले बिना लालसा की उग्रता नहीं मिटती। लालसी की तीव्रता रहते हुए अनैतिकता का अंत नहीं होता। समाज के रीति-रिवाज और परम्पराएं बड़ी खर्चीली होती है। तब ज्यों-ज्यों धन कमाने की बात प्रधान बन जाती है इसलिए अनैतिकता को उखाड़ फेंकने के लिए सामाजिक धारणाओं को बदलना आवश्यक है। वे बदलती है, तब अर्थ-संग्रह की वृत्ति अपने-आप शिथिल बन जाती है।

दहेज, मृत्यु-भोज, विवाह-भोज, कन्या-वर विक्रय आदि परम्पराएं रूढ़ हो चुकी है। परम्परा का जन्म कभी किसी विशेष प्रसंग से होता है, फिर वह चल पड़ती है। आदिकाल में इसका ग्राह्य होती है और मध्यकाल में अनिवार्य बन जाती है। यह अनिवार्यता ही रोग या बुराई का स्रोत है। साधारण स्थिति वाले लोगों में अनिवार्य परम्पराओं को पूरा करने की क्षमता नहीं होती। किन्तु उन्हें पूर्ण किए बिना गति भी नहीं, इसलिए ज्यों-त्यों वैसा ही करना पड़ती है। यहीं से अनैतिकता की ओर पैर चल पड़ते हैं। किसी की मान्यता है- ऐसा किए बिना परलोक नहीं सुधरता। कोई मानता है। प्रतिष्ठा को बट्टा लगता है। कोई स्पर्धा लिए चलता है- अमुक ने ऐसा किया तो मैं उससे कम कैसे रहूं? कोई शक्ति से आगे पैर फैलाना न चाहे, उसे दूसरे लोग शिकार बना लेते हैं। समाज की आज की मनोदशा पर वह पुराना अनुभव सही हो रहा है-

केचिंदज्ञानतो नष्टाः केचिन्नष्टा प्रमादतः।

केचिद् ज्ञानावलेपेन, केचिन्नष्टैश्च नाशिताः।।

अनेक अज्ञान से, अनेक प्रमाद से, अनेक ज्ञान के अहंकार से और अनेक खराब हुए लोगों द्वारा नष्ट होते हैं। विनाश का स्रोत बहुमुखी है।

नियंत्रित हों आय के स्रोत:- आय और व्यय अर्थ के सहज रूप है। आय के अनुपात से व्यय करने में अधिक खतरा नहीं। व्यय के अनुपात से आय बढ़ाने की बात में गंभीर खतरा है। आय के साधनों को दोषपूर्ण किए बिना व्यय बढ़ाने की बात नहीं होती। अनैतिकता से वही बच सकता है, जो आय के अनपेक्षित स्रोतों पर नियंत्रण करने के साथ-साथ व्यय पर भी नियंत्रण रखे। व्यय पर भी नियंत्रण होता है तो आडंबर, दिखावा, फिजूलखर्चियां और स्पर्धाएं अपने-आप टूट जाती हैं। इन्हें उखाड़ फेंकने का मतलब है- संग्रह की रीढ़ तोड़ना।

बड़प्पन की मान्यता, भोग-वृत्ति और आलस्य ये भी अर्थ-गौरव के हेतु हैं। अर्थ-गौरव की भावना जहां है, वहां अनीति का स्रोत नहीं सूखता। अधिक खाना-अधिक मात्रा में खाना, अधिक वस्तुएं खाना, आवश्यकता पूर्ति नहीं। यह भोग-वृत्ति का उग्रभाव है। दूसरों को सुलभ न हो वैसे घर बनाना, वैसे वस्त्र पहनना, वैसी वस्तुएं खाना, वैसी वस्तुओं का उपयोग करना-बड़प्पन की मान्यता है। दूसरों से काम कराने की वृत्ति में आलस्य और बड़प्पन की मान्यता है। इन दोनों के बीच छिपे हुए हैं। इन सबकी पूर्ति का हेतु अधिक संग्रह है। अधिक संग्रह का हेतु अनैतिकता है। उससे बचने के लिए जीवन को अर्थ-भार से दबा देने वाली सामाजिक मान्यता, बड़प्पन की मान्यता, भोग-वृत्ति और परावलम्बन से किनारा लेना होगा।

जीवन का संयम-दर्शन:- जीवन में संयम-जीवन का दर्शन है। जीवन चलाने की जो प्रक्रियाएं है, उनमें असंयम की मात्रा का तरतम भाव हो सकता है, हिंसा और परिग्रह की तरतमता हो सकती है, संयम की ओर जाने की दुर्लभता या सुलभता हो सकती है, आसक्ति की न्यूनाधिकता हो सकती है पर उनमें स्वयंभूत संयमशीलता वा स्वरूपतः संयमयता नहीं होती है। जीवन-निर्वाह की दिशा बड़ी हिंसा से अल्प हिंसा, बहु परिग्रह से अल्प परिग्रह, अति आसक्ति से अल्प आसक्ति की ओर चलती है, वह संयम-प्राप्ति की सुलभता का हेतु है। जीवन-प्रक्रिया को सरल बनाए बिना संयम आता नहीं और आ जाए, वह टिकता नहीं। इसलिए जीवन प्रक्रिया को सरल बनाएं, संयम जीवन में ठहर जायेगा।

आचार्यश्री महाप्रज्ञ (जय फीचर्स)

प्रस्तुति-डाॅ. गौतम कोठारी

हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…