कॉरपोरेट घरानों को नये बैंकों को अनुमति देने के पहले…
रिजर्व बैंक ग्राहक को धन की वापसी की गारंटी दें…
अशोक भाटिया- पिछले दो वर्षों में आइएल ऐंड एफएस, डीएचएफएल, यस बैंक, और पंजाब तथा महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक अपनी कमजोर वित्तीय स्थिति के कारण धराशायी हुए हैं। इस सूची में नया नाम लक्ष्मी विलास बैंक का जुड़ गया है, जिस पर हाल में प्रतिबंध लगाया गया और फिर डीबीएस बैंक में उसका विलय कर दिया गया।रिजर्व बैंक की कमजोरियों को देख चुके रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य सरीखे कुछ लोगों ने इसको लेकर चिंताएं जताई हैं। अब सुना जा रहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक के एक कार्यदल ने कॉरपोरेट घरानों को भारत में बैंक खोलने की इजाजत देने का प्रस्ताव किया है। यह जोखिम से भरा हुआ कदम है। निगरानी और नियमन के मामले में रिजर्व बैंक का जो कमजोर रिकॉर्ड रहा है उसे देखते हुए क्या यह भरोसा किया जा सकता है कि केंद्रीय बैंक इन बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्जों, खासकर सहयोगी कंपनियों को दिए जाने वाले कर्जों पर निगरानी रखने की अपनी क्षमता अचानक बढ़ा लेगा? विफल हुए बैंकों के बोझ को अक्सर सरकारी बैंकों द्वारा किए गए सौदों पर डाल दिया जाता है, जिसके लिए पूंजी के तौर पर करदाताओं के पैसे का उपयोग किया जाता है।रिजर्व बैंक की संयुक्त निगरानी क्षमता और प्रस्तावित समाधान प्राधिकरण जब तक अपना मजबूत रेकॉर्ड न साबित करे और विफल होने की रास्ते पर बढ़ रहे बैंकों की पहचान न करे तब तक बैंकिंग सेक्टर में कॉर्पोरेट घरानों को कदम रखने की इजाज़त देने से परहेज किया जाए।
बैंकों में रखा गया धन देश के आम आदमी का ही होता है जिसका उपयोग सकल राष्ट्रीय विकास में इस प्रकार होता है कि छोटे व्यापारी से लेकर लघु उद्यमी और बड़े उद्योगपति तक देश के सकल उत्पादन में बढ़ौतरी करके अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सकें और कृषि व ग्रामीण तथा कुटीर उद्योगों के लिए सम्बल प्रदान कर सकें। बैंकों के दरवाजे इन क्षेत्रों के लिए भी इस प्रकार खुले रहते हैं कि वे अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए वित्तीय पोषण की जरूरतों को पूरा कर सकें। यदि साधारण शब्दों और मोटे तौर पर इसका खुलासा किया जाये तो बैंकिंग प्रणाली किसी भी देश के आर्थिक विश्वास की तिजोरी होती है क्योंकि बैंकों में धनराशि जमा कराने वाले लोग निश्चिन्त रहते हैं कि उनका धन न केवल सुरक्षित है बल्कि इसमंे समयानुरूप वृद्धि भी हो रही है। बैंक जमाधारकों को जो लाभ देते हैं वे अन्य लोगों को ब्याज पर कर्ज मुहैया करा कर जो लाभ कमाते हैं, उसमें से देते हैं। अतः बैंकों का प्रबन्धन और नियमन इस प्रकार चलता है कि जमाकर्ताओं को लाभ देने के बावजूद इनकी लाभप्रदता कर्ज देने से प्राप्त ब्याज राशि की बदौलत बनी रहे और ये अपने रखरखाव का खर्चा भी उसमें से निकालते रहें। इससे साफ है कि बैंकों में पैसा जमा करने वाले उपभोक्ता और होते हैं कर्ज लेने वाले लोग दूसरे होते हैं। बैंक अपने प्रबन्ध कौशल से ही देश के आर्थिक विकास में योगदान करते हैं। बड़े कॉरपोरेट घरानों या उद्योग घरानों को अपने बैंक खोलने की इजाजत देने से येस बैंक जैसा संकट और ज्यादा गहरा सकता है क्योंकि उद्योग घराने ही बैंकों के सबसे बड़े कर्जदार होते हैं और इनके अपने बैंक होने पर कर्ज देने वाले और कर्ज लेने वाले का अंतर ही समाप्त हो जाएगा और स्वाभाविक रूप से कर्ज वितरण में वे सावधानियां नहीं बरती जायेंगी जिनकी अपेक्षा किसी भी व्यावसायिक या वाणिज्यिक बैंक से की जाती है।
हालांकि वाणिज्यिक बैंकों की कार्य प्रणाली रिजर्व बैंक के निर्देशों के अनुसार ही संचालित होती है मगर इस व्यवस्था के चलते ही कई बैंक डूबे हैं। भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर 1991 से शुरू हुआ और इसके बाद रिजर्व बैंक कानून में कई बार संशोधन किया जा चुका है जिसके चलते वाणिज्यिक बैंकों पर ब्याज सीमा भी समाप्त हो चुकी है। यह सब बैंकिंग क्षेत्र में प्रतियोगिता को बढ़ावा देने की गरज से ही किया गया था, परन्तु इसका दुतरफा परस्पर विरोधाभासी असर भारत के मध्यमवर्गीय समाज पर पड़ा है। कॉरपोरेट बैंकों की इजाजत मिल जाने पर स्थिति यह भी हो सकती है क्योंकि बैंकों में अपेक्षाकृत अधिक ब्याज मिलने के लालच में सामान्य नागरिक ही अपनी धनराशि इन बैंकों में जमा करायेंगे लेकिन इनका उपयोग कार्पोरेट घराने अपना व्यवसाय बढ़ाने में किस तरह करेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। हाँ एक बात हो सकती है ग्राहक की जमापूंजी की ग्यारंटी जो रिजर्व बैंक ने हाल ही में 1 लाख बढ़ा कर 5 लाख किया था उसे शत प्रतिशत करदे। यानि जमाकर्ता का सम्पूर्ण पैसा सुरक्षित रहे ताकि वह खुल कर इन बैंकों से व्यवहार कर सकें।
हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…