क्यों गणेश जी की पूजा में निषेध हैं तुलसी…
तुलसी की पत्तियों को हिन्दू धर्म में अत्यंत ही पवित्र एवं शुद्ध माना गया है, साथ ही प्रत्येक पूजा में भी तुलसी को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है. विशेष रूप से कृष्ण पूजा तो तुलसी के बिना संपूर्ण ही नहीं होती। परंतु गणेश पूजन में तुलसी पूर्णतया निषेध मानी गयी है. अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर क्यों गणेश भगवान के साथ तुलसी जी को स्थान प्राप्त नहीं है? क्यों दोनों एक दूसरे के लिए अनुकूल नहीं माने जाते? इस प्रकार के अनेक प्रश्न आप सभी के मन में मौजूद होंगे। इस विषय की जानकारी देते हुए ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री जी ने इस रहस्य को पौराणिक ग्रंथों में मौजूद कथाओं के माध्यम से समझाने की कोशिश की है। आईये जानते हैं वह क्या कहते हैं। ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री जी के अनुसार पुराण एवं उपनिषदों में इससे जुड़ी कई कथाएं हैं जो इस सत्य की गंभीरता एवं गहराई को दर्शाती हैं। इनमें से एक कथा ब्रह्मावैवर्त पुराण में आती है, जो काफी प्रचलित भी है। इस कथा के अनुसार एक समय श्री गणेश जी पवित्र नदी किनारे तपस्या में लीन थे, उसी समय के दौरान देवी तुलसी भी कई स्थलों की तीर्थ यात्रा एवं पूजा पाठ हेतु भ्रमण के लिए निकली थी। अनेकों धर्म-नगरियों की यात्रा करने पश्चात वह गंगा स्थल पर आईं। उस स्थान पर देवी तुलसी का ध्यान अत्यंत ही तेजस्वी महापुरुष पर गया। वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि ओज से युक्त एवं भक्ति ध्यान में लीन गणेश जी ही थे। तपस्या में लीन गणेश जी का स्वरुप इतना मनमोहक एवं आकर्षक था कि उनकी आभा से तुलसी जी अत्यंत ही मोहित हो गईं और वह मोहवश गणेश जी की साधना में अवरोध उत्पन्न करने का प्रयास करने लगीं। तुलसी ने उनके समक्ष जाकर विवाह हेतु निवेदन किया। तुलसी के इस कृत्य से गणेश जी की साधना बीच में ही टूट गई और वह अत्यंत दुखी एवं क्रोधित हो उठे। फिर भी धैर्य धारण करते हुए श्री गणेश जी ने तुलसी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर, स्वयं को ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला बताया। ऐसे में तुलसी को इस बात से अत्यंत दुख पहुंचता है। इस अस्विकार होने के दंश को वह सहन नहीं कर पाती हैं और आवेश के वशीभूत होकर गणेश जी को दो विवाह होने का श्राप दे देती हैं।
तुलसी के इन वचनों को सुनकर गणेश जी अपने ब्रह्मचर्य के खंडित होने की स्थिति को जान जाते हैं तथा वह भी उन्हें क्रोधवश एक असुर की जीवन संगिनी होने का श्राप दे देते हैं। तुलसी जी अपने क्रोध में बोले हुए वचनों एवं असुर से विवाह की बात से अत्यंत दुखी हो जाती हैं और गणेश जी से क्षमा मांगती हैं।
तुलसी की विनय प्रार्थना सुनकर गणेश जी, अपने श्राप के प्रभाव को कम करने का आश्वासन देते हुए कहते हैं कि तुम्हारा विवाह एक महान राक्षस शंखचूर्ण के साथ संपन्न होगा, जिसकी ख्याति तीनों लोकों में रहेगी। किंतु तुम परिस्थितियों के कारण तुलसी नामक वृक्ष का रूप धारण करोगी एवं सदा पूजनीय होगी। कलयुग में तुम पापों का शमन करने वाली होगी, लेकिन मेरी पूजा में तुम्हारा सदा निषेध ही होगा। मैं तुम्हें कभी स्वीकार नहीं कर पाऊँगा। इस कथन के अनुसार तभी से तुलसी के पत्तों को गणेश जी की पूजा में उपयोग नहीं किया जाता है।”
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ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री
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