फैशन के हिसाब से बदल रही है जींस…
युवक-युवतियों में समान रूप से लोकप्रिय जींस के खिलाफ फतवा जारी हो गया है। यह तालिबानियों या कट्टरपंथियों के आदेश जैसा है। वह भी उस देश में जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक, उदार और सहिष्णु राष्ट्र माना जाता है। यों तो यह जींस मेहनतकश लोगों के लिए बनाई गई थी। मगर समय के साथ यह रफ-टफ युवाओं में भी लोकप्रिय हो गई। यह आरामदेह तो थी ही साथ ही इसे कई दिनों तक बिना धोए पहना जा सकता है। और तो और यह फट भी जाए तो कोई बात नहीं, यह फैशन बन जाता है। मुझे याद है कि एक फिल्म में अजय देवगन की जींस घुटने के पास फट गई तो वहां पर उन्होंने रूमाल बांध लिया था। फिर क्या था देखा-देखी युवाओं ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया।
न केवल युवकांे बल्कि युवतियांे-किशोरियों को भी जींस भा गई। एक समय में ढीली-ढाली रही जींस बाद में युवाओं के शारीरिक अनुपात के अनुसार तैयार की जाने लगी तो यह युवाओं की पहली पसंद बन गई जो आज भी बरकरार है। पहले-पहल जब युवतियों ने पहना तो न केवल महानगरों में बल्कि छोटे शहरों में भी पुरुष वर्चस्व वाले समाज को अटपटा लगा क्योंकि लड़कियां न केवल अपनी पढ़ाई लिखाई से लड़कों के बराबर आ रही थीं बल्कि पहनावे में भी उनका मुकाबला कर रही थीं। जब वे कमीज या टीशर्ट के साथ जींस पहनने लगीं तो सबसे पहले उन्हें घर में टोका गया। फिर घर बाहर निकलने पर कई ‘जोड़ी आंखें‘ उन्हें पीछे से घूरती रहीं। यह सिलसिला पिछले ढाई तीन दशक से चल रहा है। स्त्री को सिर्फ देह मानने वाली आंखें जींस पहने किशोरी हो या परिपक्व युवती या फिर-विवाहित आधुनिक युवती उन सभी को आज भी घूर रही हैं।
लेकिन इससे भारतीय युवतियों का आत्मविश्वास नहीं डगमगाया। स्कूल-कालेज की पढ़ाई और भागमभाग की जिंदगी में उन्होंने सलवार कमीज की तरह शर्ट-जींस को भी उतना ही आरामदायक पाया। आज जब यह पोशाक दुनिया भर की युवतियों के जीवन हिस्सा बन गई है तो इस पर कुछ कट्टरपंथियों की ‘कुदृष्टि‘ जब-तब पड़ती रहती है। जिन देशों में कट्टरपंथी हावी हैं या जहां समाज संकुचित विचारधारा का है यहां युवतियों के आधुनिक पोशाक पर प्रायः बंदिश लगाई गई। कभी उन्हें बुर्का पहनने को कहा जाता है तो कभी हिजाब लगाने को।
नारी सौंदर्य स्वतः ही किसी पुरुष को आकर्षित कर लेता है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं दूसरे देशों के समाज और परिवार का भी संस्कार है कि जो चीज किसी को आकर्षित करती है, उसे छिपाओ। यही वजह है कि दुनिया भर में नारियों को बरसों तक घरों से बाहर नहीं निकलने दिया गया। बच्चियों की कम उम्र में शादियां तक की गईं। कई बरस और पीछे जाएं तब पुरुष जब कहीं बाहर जाते थे तो वे अपनी पत्नियों को कमर के नीचे लोहे की सांकल तक लगा कर जाते थे ताकि कोई पर पुरुष उससे संबंध न बना सके। भारतीय स्त्रियों को तो सदियों सलाखों के पीछे घुट-घुट कर जीना पड़ा है। शायद इसीलिए कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने उनकी पीड़ा यों बयां की कि- ‘अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी, आंचल में दूध, आंखों में पानी‘।
आज जब लड़कियां आगे आ रही हैं और लड़कों को पीछे छोड़ रही हैं तो भारत जैसे देश में कुछ शिक्षा-संस्थान कट्टरपंथियों की तरह उनकी पोशाक को लेकर टोकाटाकी करते हैं। यह सही है कि कुछ पश्चिमी परिधान लड़कियों को हास्यस्पद लगते हैं खासतौर से भारत जैसे देश में। ये पोशाक बेडरूम में पतियों को तो अच्छी लग सकती है मगर सड़क पर इन्हें पहन कर चलने से सैंकड़ों निगाहें उन पर पड़ती हैं और युवाओं को उत्तेजित भी करती हैं। मगर जींस जैसी पोशाक को ऐसा नहीं माना जा सकता कि वह भड़काऊ है, अगर उसे शालीनता से पहना जाए। उसे पहनने का अंदाज होना चाहिए।
पिछले दिनों कानपुर में चार महिला कालेजों ने आदेश जारी कर छात्राओं से पश्चिमी परिधान या जींस पहन कर क्लास में न आने की हिदायत दी है। उनका मानना है कि ऐसे वस्त्र पहनने के कारण कैम्पस में छेड़खानी होती है। दरअसल इन कालेजों ने पिछले साल भी यह आदेश निकाला था, मगर विरोध के कारण लागू नहीं किया जा सका था। अब यह छुट्टियों के दौरान निर्णय लिया गया है लेकिन सरकार ने इसे खारिज कर दिया है। हालांकि कालेज के प्राचार्य तो यही मान रहे हैं कि जींस पहनने वाली लड़कियों से ही छेड़खानी होती है। इसलिए हम उन्हें बचाना चाहते हैं। यह अजीब तर्क है क्योंकि छेड़खानी तो लड़कियों, युवतियों और विवाहित स्त्रियों से भी होती है जो जींस नहीं पहनती। सड़क पर नजरें नीची कर और साड़ी अथवा सलवार कमीज पहन कर चलने वाली युवतियां भी शिकार होती हैं।
दरअसल लड़कियों के परिधान के पीछे पड़ने के बजाय उन लोगों पर सख्ती करने के जरूरत है जो स्त्री को सिर्फ भोग विलास की वस्तु समझते हैं और उससे खेलना चाहते हैं। यह हमारे शिक्षाविदों का धर्म था कि वे पाठ्य पुस्तकों में नारियों की पूजा करने वाली बात से आगे बढ़ कर स्त्री पुरुष में समानता, सहअस्तित्व और नारी की गरिमा और भावना को ठेस न पहुंचाने वाला अध्याय भी पाठ्यक्रम में जोड़ते जिससे बच्चों में बालपन से ही स्त्रियों की रक्षा करने और उनकी मर्यादा का सम्मान करने की बात दिल में बैठ जाती। फिर धीरे-धीरे ऐसी पीढ़ी तैयार होती जिससे वे छेड़खानी, दुष्कर्म और ब्लैकमेल करने की लोग कल्पना भी नहीं करते।
निश्चित तौर से महानगरों से लेकर शहरों-कस्बों तक छेड़खानी की घटनाएं भारतीय समाज के लिए काला टीका हैं। इसे मिटाने के लिए कड़े कानून की जरूरत है। कानपुर में ही ऐसे मजनुओं से निपटने के लिए रासुका लगाने का कदम सराहनीय है। देर-सवेर सभी राज्यों में महिलाआंे से अभद्रता करने वाले लोगों से सख्ती से निपटने के लिए नए कानून बनाने होंगे। सजा भी बढ़ानी होगी। तभी नजरिया बदलेगा और नजरें भी। सदियों से घूर रही निगाहों में भोग नहीं सम्मान का भाव जागृत होगा। जरूरत परिधानों को बदलने की नहीं विचारों को बदलने की है। यह पहल न केवल समाज बल्कि कानून और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े विशेषज्ञों को भी करनी है।
हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…