उम्मीद…

उम्मीद…

-राजेन्द्र नागदेव-

 

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे कोई कंदील रात के तीसरे पहर टिमटिमा रही हो

पेड़ की सूखी डाल पर

और थके पांवो की शिराओं में कर रही हो रक्त संचार

कहती हो

खत्म होते हैं रास्ते

खत्म होती हैं पगडंडियां

ये लंबाइयां मुसाफिर के सपनों से बडी नहीं होतीं

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे पतझड़ में फूट पड़ी हो कोई कोंपल

कोख में सहेजे

संसार भर के फूलों का पराग

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे कोठरी में बंद कैदी के लिए

दया याचना की चिठ्ठी

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे भूकंप में हिलती धरती पर गिरे पेड़ के खोखल में

बचा हुआ गिलहरी का बच्चा

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे सूखे तालाब की गर्म धूल पर

आकाश से गिरी एक बूंद

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे मरघट में कफन के नीचे

अचानक हिल गया हाथ

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे कटी हुई पतंग

मांझे के साथ हवा में लहराती

वापस छत पर गिरे

एक उम्मीद कभी-कभी इस तरह जगती है

जैसे जंगल की आग के ऊपर

भटक कर आ गया कोई बादल

उम्मीद कभी- कभी आती है

रेत की पहाड़ी में राई के दाने की तरह

हवा धीमे-धीमे सरसराती है पहाडी पर

राई तक पहुंचना होता है

अंततः आदमी की उंगलियों को ही

उम्मीद को मैं सहेजना चाहता हुं

सीप में बूंद की तरह

फेफड़ों में सांस की तरह

किसी मरणासन्न के बिस्तर पर

बोतल में सलाइन की तरह

भूख के पास रोटी की तरह

मैं सहेजना चाहता हूं उम्मीद

मरुभूमी में मात्र सोते की तरह

जिस उम्मीद पर जीवित रहती है दुनिया

वह मरीचिका वाली उम्मीद नहीं होती।

हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…