सुख तो मन के भीतर है…

सुख तो मन के भीतर है…

 

शरीर की शुद्धि के लिए मनुष्य जितना सजग है, दूसरा कोई प्राणी नहीं है। वह शरीर को स्वच्छ बनाये रखने के लिए शरीर पर उबटन लगाता है, तेल लगाता है, साबुन से शरीर को मल-मलकर धोता है, अन्य प्रसाधन-सामग्री का भी उपयोग करता है। इस क्रम से गुजरने के बाद व्यक्ति सोचता है कि मेरे शरीर में अब किसी प्रकार की अशुद्धि नहीं रही।

शरीर-शोधन की जो बात हो रही है, उसका संबंध ऊपर की स्वच्छता से नहीं है। शरीर की भीतरी स्वच्छता का तरीका वह नहीं है, जिसे आप लोग काम में लेते हैं। हमारे अभिमत से वह तरीका है प्रेक्षा। शरीर प्रेक्षा के प्रयोग से शरीर के भीतर जमे हुए मल उखड़ जाते हैं और शरीर की स्वाभाविक क्रिया में उपस्थित होने वाले अवरोध समाप्त हो जाते हैं।

कुछ लोगों का मत है कि शरीर में कोई सार नहीं है। वह गंदा है, अशुचि है, अपवित्र है। मैं यह कहना चाहता हूं कि इसी अपवित्र शरीर में परम पवित्र आत्मा का वास है। यही आत्मा परमात्मा है। जिस शरीर में स्वयं परमात्मा विराजमान हो, उसे अपवित्र क्यों मानें? कैसे मानें? अपवित्रता में छिपी हुई पवित्रता को समझ लिया जाए तो सही तत्व प्राप्त हो सकता है। सामान्यतः मनुष्य ऊपर की स्वच्छता और चमक-दमक पर ध्यान देता है भीतर का रहस्य वह नहीं खोजता। भीतरी तत्व को समझे बिना सत्य को नहीं समझा जा सकता।

पाटलिपुत्र में गौतम बुद्ध की सन्निधि में एक सभा आयोजित थी। सम्राट सेनापति, सचिव, नागरिक सभी उपस्थित थे। बुद्ध का प्रिय शिष्य आनन्द भी सभा में था। उसने एक प्रश्न उपस्थित किया-भन्ते! यहां जितने लोग बैठे हैं, उनमें सबसे अधिक सुखी कौन हैं? बुद्ध ने सभा की ओर दृष्टिक्षेप किया। सभा में एक मौन सन्नाटा छा गया। सम्राट, सेनापति, बड़े-बड़े धनकुबेर आदि पर बुद्ध की दृष्टि नहीं थमी। उन्होंने सभा में सबसे पीछे बैठे एक फटेहाल व्यक्ति की ओर संकेत कर कहा-इस सभा में सबसे अधिक सुखी व्यक्ति वह है।

एक प्रश्न का समाधान मिला, पर दूसरी उलझन खड़ी हुई। श्रोता चकित रह गए। आनन्द ने फिर पूछा-भन्ते! बात समझ में नहीं आई, कुछ स्पष्टता से बताइए। बुद्ध ने सम्राट को सम्बोधित कर पूछा-आपको क्या चाहिए? सम्राट बोला-भन्ते! बहुत कुछ चाहिए। राज्य का विकास करने के लिए समृद्धि, सेना, शस्त्रास्त्र सबका विकास करना है। सेनापति ने भी अपनी कुछ मांगे प्रस्तुत की। नागरिकों की मांगें तो विविध प्रकार की थीं। अन्त में बुद्ध ने उस फटेहाल व्यक्ति से फूछा-भैया! तुझे क्या चाहिए? वह सहज भाव से बोला-भन्ते! मुझे कुछ नहीं चाहिए। पर जब आप पूछ रहे हैं तो एक मांग कर लेता हूं। क्या? बुद्ध द्वारा पूछे जाने पर उसने उत्तर दिया-मेरी एक ही चाह है कि मेरे मन में कोई चाह पैदा न हो।

बुद्ध ने आनन्द की ओर अभिमुख होकर कहा-आनन्द! समझ में आया सुख का रहस्य। वेश-भूषा से कोई व्यक्ति सुखी नहीं होता, सुख तो व्यक्ति के भीतर रहता है। इसी प्रकार इस अपवित्र शरीर के भीतर पवित्र आत्मा और परमात्मा का वास है। उसकी खोज हो जाने के बाद सारे प्रश्न स्वयं समाहित हो जाएंगे।

(प्रस्तुति: डा. गौतम कोठारी)

हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…