कहानी: बिट्टू की साइकिल…

कहानी: बिट्टू की साइकिल…

 

-अशोक सरीन-

 

वह साठ साल पार कर चुका था। उसके चेहरे पर झुर्रियां और सर पर थोड़े-से बाल रह गए थे। दांत न रहने से मुंह पोपला था। उसका नाम क्या था मालूम नहीं, पर लोग उसे मशहूरी कहकर पुकारते थे।

शहर से दूर पहाड़ी तलहटी पर उसका कच्चा घर था, जो उसकी ही तरह जर्जर हो चुका था। उसके साथ उसकी जवान बहू और पोता रहता था। कुछ वर्ष पूर्व उसकी पत्नी का देहांत हो गया था। उस समय उसके बेटे की आयु दस वर्ष की थी। उसने बेटे को कभी मां की कमी का एहसास न होने दिया था। उसे प्यार से पाल-पोस, पढ़ा-लिखाकर अपने पांव पर खड़ा किया था। उसकी नौकरी बड़ी दूर लगी थी। बेटे के दूर होने से वह अकेला पड़ गया था। उसे अपना अकेलापन बहुत अखरता था।

उसका बेटा जवान था। वह उसकी शादी के लिए रिश्ते की तलाश में था। उसे घर के कामकाज और अपनी देखभाल के लिए समझदार बहू की जरूरत थी। आखिर काफी दौड़-धूप के बाद उसे सुंदर, सुशील लड़की मिल गई। उसने बड़े चाव से बेटे का विवाह किया। एक वर्ष बाद उसके सूने घर में पोते की किलकारी गूंजने से वह अपनी पत्नी का दुःख भूल गया। चार वर्ष पूर्व उसका बेटा भगवान को प्यारा हो गया। ढलती उम्र में उस पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। जवान बहू और पोते की परवरिश का भार उसके बूढ़े कंधों पर आ गया था। जीविका के लिए वह काम की तलाश में मारा-मारा फिरता रहता, पर उसका बुढ़ापा उसके व काम के बीच दीवार बन जाता। अंततः उसे एक काम मिला था डोंडी पीटने का। म्युनिसिपल कमेटी की डोंडी हो या सिनेमा में लगी फिल्म की, किसी जलसे की हो या कंपनी के नए माल कीकृ हर काम में मशहूरी की सेवा ली जाती। वह गली-गली, बाजार-बाजार में डोंडी पीटता। उसने इस कार्य के लिए विशेष वर्दी बनवाई थी। कोट-पैंट और हैट लगाए वह एक कागज हाथ में लिए, जगह-जगह डोंडी पीटता। पहले वह जोर-जोर से ढोल बजाकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता। ढोल की आवाज सुन, उसके पास लोगों का हुजूम लग जाता। तब वह ऊंचे स्वर में बोलने लगताकृहर खास और आम से, बच्चे-बूढ़े, जवान से। सुनिए जनाबे आला, क्या कहता है मुनादी वाला। सुनना जरा गौर से, बात करना किसी और से। इतना कहकर वह अपने हाथ में पकड़े कागज की इबारत को जोर-जोर से पढ़ता। इबारत पढऩे के बाद, वह एक बार फिर जोर से ढोल पीटता और आगे बढ़ जाता। उसके पीछे-पीछे गली के बच्चे शोर मचाते चलते।

शाम को जब वह थका-हारा घर पहुंचता, तो उसका पोता बिट्टू उससे पूछताकृदादू आज किस चीज की मशहूरी की?

एक फिल्म की।

दादू, मैं भी फिल्म देखूंगा। बिट्टू जिद्द करता।

कल जरूर दिखाऊंगा। मशहूरी पोते को गोद में उठाए कहता।

मशहूरी का घर किसी अजायबघर से कम नहीं था। उसके घर की दीवारों पर विभिन्न फिल्मों के आदमकद पोस्टर, क्रीम-पाउडर, बीड़ी-सिगरेट, सूरमा-काजल, चूर्ण न जाने कितनी चीजों का संग्रह था। जिस चीज का ढिंढोरा पीटता, उसका एक पीस बतौर नमूना अपने पास रख लेता।

मशहूरी को अब ढिंढोरा पीटने के साथ एक और काम मिल गया था। सामान की नीलामी का। जिस किसी को अपना सामान बेचना होता, वह मशहूरी को याद करता। उसे नीलामी में पैसों के साथ कुछ कमीशन भी मिलता।

जब कभी वह कहीं नीलामी करता, रात घर आकर अपनी बहू को विस्तार से उन चीजों के बारे में बताता। उस समय उसका पोता बिट्टू बड़े ध्यान से अपने दादू की बातें सुनता। एक दिन मशहूरी अपनी बहू को एक नीलामी के बारे में बता रहा था। बिट्टू पास बैठा सब सुन रहा था। अनायास वह बोला दादू, नीलामी में साइकिल भी होता है?

कैसी साइकिल बिट्टू ? मशहूरी अनजान बनते बोला।

तीन पहियों वाली दादू।

अच्छा-अच्छा, वो साइकिल। किसी नीलामी में होगी,  तो जरूर ला दूंगा। मशहूरी बिट्टू का दिल रखते बोला। उस दिन के बाद मशहूरी किसी भी नीलामी में जाता, उसकी निगाहें साइकिल की खोज में रहती। उसने बाजार से साइकिल का मोल पूछा।

दो सौ पच्चास रुपए।

साइकिल का मूल्य सुनकर उसका उत्साह ठंडा पड़ गया।

एक बार एक अंग्रेज अफसर ने जो अपने देश लौट रहा था, मशहूरी को बुलाकर अपना सामान नीलाम करने की इच्छा प्रकट की। मशहूरी ने सामान देखा तो उसकी आंखें चमक उठीं। वहां अन्य सामान के बीच एक तीन पहियों की नई साइकिल भी थी।

साहब, साइकिल भी बेचेंगे?

हां, अंग्रेज उपेक्षित स्वर में बोला।

इसकी कितनी कीमत होगी? मशहूरी ने अंग्रेज को टटोलना चाहा।

डेढ़ सौ रुपए।

डेढ़ सौ तो बहुत हैं साहब। मशहूरी कातर स्वर में बोला।

अरे, बिल्कुल नई है। अभी एक वर्ष पहले ही खरीदी थी।

साहब, खरीदने और बेचने में अंतर होता है३।

ठीक है, पचास रुपए से नीलामी शुरू करना।

नीलामी कब होगी, साहब?

परसों!

इतनी जल्दी साहब?

हां, हमें अपने देश जल्दी लौटना है।

वह तो ठीक है साहब, पर नीलामी जितनी देर से होगी, लाभ आपको ही होगा।

मैं समझा नहीं? अंग्रेज ने विस्मय से पूछा।

मैं चार दिनों तक इस नीलामी का ढिंढोरा, दूर-दूर तक पीटूंगा। इससे नीलामी में बहुत लोग शामिल होंगे और आपके सामान का भाव बढ़ जाएगा। मशहूरी ने कहा।

ठीक है, चार दिनों बाद ही करना। अंग्रेज ने सहमति प्रकट की।

उस रात मशहूरी ने बिट्टू को गोद में लेकर पुचकारते हुए कहा-बिट्टू, तू साइकिल मांगता था न?

हां, दादू। मेरा साइकिल के लिए बड़ा मन करता है।

चार दिनों बाद तुझे नयी साइकिल ला दूंगा।

सच दादू? बिट्टू को विश्वास नहीं हो रहा था।

हां बिट्टू। चार दिनों बाद एक अंग्रेज के सामान की नीलामी होगी, उसमें साइकिल भी है।

बिट्टू खुशी से मशहूरी की छाती से लिपट गया मेरे प्यारे दादू३ मेरे अच्छे दादू। वह मचलने लगा।

अगले रोज मशहूरी अंग्रेज अफसर के सामान की डोंडी पीट रहा था। वह एक कागज में लिखी सामान की सूची को पढ़कर ऊंचे स्वर में कह रहा था-सुनिए साहिबान, एक अंग्रेज अफसर अपने देश लौट रहा है। वह अपना सामान जिसमें रंगीन टीवी, पलंग, सोफा, स्टील की अलमारी, मेज-कुर्सियां, कैमरा, कपड़े धोने की मशीन, दूरबीन आदि बेचना चाहता है। सामान बिल्कुल नया है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। सामान देखें, खरीदें और घर की शान बढ़ाएं। मशहूरी ने कई चीजों के नाम लिए, पर बच्चे की साइकिल की बात टाल गया। वह नहीं चाहता था कि कोई साइकिल खरीदने का इच्छुक नीलामी में शामिल हो। यह साइकिल उसके पोते बिट्टू की है और वह ही इसे खरीदेगा।

नीलामी के दिन, मशहूरी सुबह ही अंग्रेज के घर पहुंच गया। वह अपने साथ एक दोस्त भी लाया था। मशहूरी ने उसे बच्चे की साइकिल दिखाकर कुछ समझाया और अस्सी रुपए उसकी जेब में डाल दिए।

दोपहर तक अंग्रेज का घर लोगों से भर चुका था। मशहूरी ने नीलामी का सिलसिला शुरू किया। धीरे-धीरे उसने सारा सामान अच्छे दामों पर बेद दिया। अंग्रेज उसके काम से खुश था।

अब वहां बच्चे की साइकिल शेष थी। मशहूरी ने साइकिल नीलाम करने से पहले, उसे निर्निमेष निगाहों से देखा। यह मेरे बिट्टू की है। वह इसका आज बेसब्री से इंतजार कर रहा था। इसे मैं ही खरीदूंगा। मन में सोचकर मशहूरी ने कांपते हाथों से साइकिल ऊपर उठाई और भीड़ पर नजर डालते हुए कहाकृ साहेबान, नीलामी का आखिरी तोहफा, बच्चे की साइकिल। ले जाइए अपने कलेजे के टुकड़े के लिए, पोते-नाती के लिए। यह कहकर उसने भीड़ में खड़े अपने दोस्त पर नजर डाली। आश्वस्त होने पर मशहूरी ने नीलामी शुरू कीकृ बाजार में इस साइकिल का मोल अढ़ाई सौ रुपए है, पर साहब ने इसकी कीमत पचास रुपए रखी है। अब आप इसका मूल्य बोलें। कहते हुए मशहूरी का कंठ अवरुद्ध हो गया। उसकी आंखों के आगे बिट्टू का मासूम चेहरा मूर्त हो उठा।

पचपन रुपए, एक स्वर उठा।

पैंसठ रुपए, दूसरा स्वर वातावरण में गूंजा।

पचहत्तर रुपए, मशहूरी का साथी कंठ फाड़ बोला। कुछ देर बाद वहां खामोशी छा गई। मशहूरी का आंखों में चमक आ गई।

अब यह साइकिल मेरे बिट्टू की हो जाएगी। बस एक, दो, तीन कहूंगा और नीलामी खत्म। साइकिल लिए जैसे ही मैं घर में कदम रखूंगा, बिट्टू उसे देख खुशी से उछल पड़ेगा और कहेगाकृ मेरे दादू, साइकिल ले आए, मेरे प्यारे दादू, मेरे अच्छे दादू। मशहूरी कल्पना में डूबा हुआ सोच रहा था, कि भीड़ में से किसी ने सौ रुपए का शब्द उछाल दिया। मशहूरी ने उस व्यक्ति को जलती निगाह से देखा और जोर से चिल्लायाकृ

सौ रुपए एक

सौ रुपए दो

सौ रुपए तीन कहते-कहते मशहूरी रुक गया। दादू मेरा साइकिल के लिए बड़ा मन है। बिट्टू की तोतली आवाज उसके कानों में बार-बार बज रही थी। वह क्या मुंह लेकर पोते के पास जाएगा। सोचकर उसकी आंखें भर आई। नीलामी समाप्त करो भीड़ से सौ रुपए वाला व्यक्ति चिल्लाया। मशहूरी ने अपने आंसू पोंछे और कमजोर स्वर में बोला-सौ रुपए३। तीन का शब्द उसके गले में अटककर रह गया। वह स्वयं को संभाल न सका। उसका पूरा शरीर, एक बार सूखे पत्ते की तरह जोर से कांपा और वह कटे वृक्ष की तरह जमीन पर गिर पड़ा।

हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट …