शांति पूर्वक चुनाव के लिए बिहार की जनता को बधाई अवश्य दी जानी चाहिए…
अशोक भाटिया- 243 सदस्यों वाली बिहार विधान सभा के चुनाव नतीजों में 75 सीटों के साथ राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, जबकि 74 सीटों के साथ बीजेपी दूसरे नंबर पर रही है| नीतीश कुमार की पार्टी 43 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर है| सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए को 125 सीटों के साथ बहुमत हासिल हुआ है|बिहार के चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण थे क्योंकि ये कोरोना काल में हो रहे थे। इस संक्रमण काल में चुनाव सफलतापूर्वक कराना चुनाव आयोग के लिए निश्चित रूप से एक चुनौती थी जिसे उसने बखूबी अंजाम दिया। राज्य में भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने से यह भी सिद्ध हुआ कि मतदाताओं ने क्षेत्रीय राजनीति में राष्ट्रीय दलों की भूमिका को महत्ता देना जरूरी समझा है क्योंकि सत्तापक्ष के जनता दल (यू) व विपक्षी गठबन्धन के राष्ट्रीय जनता दल दोनों ही इससे पीछे रहे हैं। चुनाव परिणामों का इसे हम विशिष्ट पक्ष मान सकते हैं। इसके साथ ही राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस का प्रदर्शन भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। इन चुनावों में इसका मतप्रतिशत बढ़ा है मगर जिस तरह वामपंथी दलों ने इन चुनावों में चौकड़ी भरी है उससे बहुत से राजनीतिक पर्यवेक्षक चौंके हैं।
विपक्षी गठबन्धन के साथी इन दलों को 243 में से केवल 29 सीटें ही दी गई थीं और ये आधी से अधिक सीटें जीतने में सफल रहे हैं। वामपंथी दलों का राजनितिक पटल पर उभरना भी बिहार के पुराने राजनीतिक चरित्र को बताता है और बदले हुए समय में बदलते राजनीतिक विमर्शों की तरफ इशारा करता है। बेशक भाजपा का राष्ट्रवादी विमर्श इन चुनावों में मतदाताओं के लिए सर्वोपरि रहा है किन्तु इसका धुर विरोधी विचार भी इन चुनावों में सतह पर आया है। जिससे पता चलता है कि चुनावों में उठे जमीनी मुद्दों की तरफ भी मतदाताओं की तरजीह रही है, किन्तु सीमांचल के इलाके में कट्टरपंथी साम्प्रदायिक पार्टी इत्तेहादुल मुसलमीन के उभार से खतरे की घंटी भी बजी है। बिहार की संस्कृति साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक मानी जाती है। श्री ओवैसी की इस पार्टी के बिहार में पैर जमाने से राज्य की धर्मनिरपेक्ष छवि पर गलत असर पड़ा है। जहां तक लालू जी की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी का सवाल है तो यह अपना वह प्रभाव कायम रखने में सफल नहीं हो सकी है जिसकी अपेक्षा तेजस्वी बाबू का चुनाव प्रचार देख कर की जा रही थी। इसके पीछे उनकी पार्टी का पुराना शासन इतिहास भी एक कारण हो सकता है जिसे सत्तारूढ़ गठबन्धन ने जम कर भुनाने की कोशिश की और लालू-राबड़ी राज को जंगल राज की संज्ञा देकर बिहारी जनता में पुराने जख्मों को कुरेद डाला। जिस तरह की विपक्षी गठबन्धन लहर की अपेक्षा की जा रही थी चुनाव परिणामों ने उसका प्रमाण नहीं दिया है, परन्तु यह सिद्ध कर दिया है कि सत्तारूढ़ गठबन्धन की तरफ से असली खिलाड़ी भाजपा निकली है। चुनावी प्रचार के दौरान जिस प्रकार मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार प्रधानमन्त्री की छाया में दुबक गये थे उसका परिणाम बेहतर आया है और 15 साल तक लगातार शासन करने के खिलाफ उपजा सत्ता विरोधी आक्रोश कम हुआ है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि बिहार के चुनाव हवाई मुद्दों पर लड़े गये हैं। इन चुनावों में कहीं न कहीं सुशासन का मुद्दा भी भीतरखाने काम करता दिखा जिसकी वजह से भाजपा-जद (यू) गठबन्धन टक्कर में रहा है और रोजगार व शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों ने भी अपना असर दिखाया है क्योंकि युवा तेजस्वी को जनता ने अपना प्यार दिया है। हालांकि यह स्नेह थोड़ा सकुचाते हुए दिया गया है।
चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी एक परिपक्व राजनेता की तरह जनता से जुड़े मूल मुद्दों को उभार कर अपनी पार्टी की विचारधारा को प्रबल बनाने का भरपूर प्रयास किया और चुनावी भाषणों की गरिमा को बनाये रखते हुए अपने विरोधियों के समक्ष भी ऐसा ही व्यवहार करने की चुनौती फेंकी। कुल मिला कर चुनाव शान्तिपूर्ण रहे और जनतापरक मुद्दों से लबरेज रहे। इसके लिए बिहार की जनता को बधाई अवश्य दी जानी चाहिए। आशा है जिस शांति के साथ चुनाव संपन्न हुए है उसी शांति के साथ एक लोकप्रिय सरकार का गठन भी हो जाएगा और बिहार के विकास की गाड़ी दोबारा दौड़ने लगेगी।
हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…