*किसके नाम है वसीयत*
*-विजयशंकर चतुर्वेदी-*
झांझ बजती है तो बजे
मंजीरे खड़कते हैं तो खड़कते रहें
लोग करते रहें रामधुन
पंडित करता रहे गीता पाठ मेरे सिरहाने
नहीं, मैं ऐसे नहीं जाऊंगा।
आखिर तक बनाए रखूंगा भरम
कि किसके नाम है वसीयत
किस कोठरी में गड़ी हैं मुहरें।
कसकर पकड़े रहूंगा
कमर में बंधी चाबी का गुच्छा।
बांसों में बंधकर ऐसे ही नहीं निकल जाऊंगा
कि मुंहबाए देखता रह जाए आंगन
ताकती रह जाए अलगनी
दरवाजा बिसूरता रह जाए।
मेरी देह ने किया है अभ्यास इस घर में रहने का
कैसे निकाल दूं कदम दुनिया से बाहर।
चाहे बंद हो जाए सिर पर टिकटिकाती घड़ी
पाए हो जाएं पेड़
मैं नहीं उतरूंगा चारपायी से।
चाहे आखिरी साबित हो जाए गोधूलिवेला
सूरज सागर में छिप जाए
रात चिपचिपा जाए पृथ्वी के आरपार
कृमि-कीट करने लगें मेरा इंतजार
धर्मराज कर दें मेरा खाता-बही बंद
मैं डुलूंगा नहीं।
खफा होते हैं तो हो जाएं मित्र
शोकाकुल परिजन ले जाएं तो ले जाएं
मैं जलूंगा नहीं।