छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रचार के आखिरी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महासमंद में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, “देश को पता है। सीताराम केसरी, दलित, पीड़ित, शोषित समाज से आए हुए व्यक्ति को पार्टी के अध्यक्ष पद से कैसे हटाया गया। कैसे बाथरूम में बंद कर दिया गया था। कैसे दरवाजे से हटा कर, उठा कर फुटपाथ पर फेंक दिया गया था। और मैडम सोनिया जी को बैठा दिया गया था। ये इतिहास हिंदुस्तान भली-भांति जानता है। उनको मजबूरी में बनाया था, उसको भी वो दो साल झेल नहीं पाए।” इन तथ्यों को जांचने के लिए और सबसे पुरानी पार्टी में उस वक्त चल रही हलचल को समझने के लिए हमें दोबारा इस मामले को याद करना होगा। दरअसल, केसरी दलित थे ही नहीं और ना ही वो उस वक्त पार्टी के भीतर बेहद लोकप्रिय थे जब 14 मार्च 1998 में असंवैधानिक तख्तापलट की साजिश रची गई। वो साजिश सोनिया गांधी के निवास 10 जनपथ पर नहीं, बल्कि तालकटोरा रोड पर प्रणब मुखर्जी के घर रची गई थी। जितेंद्र प्रसाद, के करुणाकरन, शरद पवार, अर्जुन सिंह और कांग्रेस वर्किंग समिति के लगभग सभी सदस्य केसरी से निजात पाना चाहते थे और उन्हें हटाने में इन सभी की भागीदारी रही। हालांकि ये भी सच है कि केसरी और उनके समर्थकों ने सोनिया को पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाने से रोकने की हर तरह की कोशिश की थी। केसरी के एक करीबी ने एक प्रतिष्ठित अखबार के कॉलम में लिखा था कि सोनिया को इस तरह की ओछी राजनीति करने की बजाय इटली वापस लौट जाना चाहिए और एक अच्छी नानी मां की भूमिका निभानी चाहिए। सितंबर 1996 से मार्च 1998 तक पार्टी अध्यक्ष रहे केसरी के साथ कई समस्याएं थीं। दक्षिण और उत्तर-पूर्व के नेताओं को उनसे बातचीत करने में समस्या पेश आती थी क्योंकि वो अंग्रेजी नहीं जानते थे। उत्तर भारत के कांग्रेस के उच्च जाति के कई नेताओं ने उन्हें अपना नेता माना ही नहीं, क्योंकि केसरी पिछड़ी जाति के थे। केसरी भी कांग्रेस के उत्तर भारत के ब्राह्मण और ठाकुरों को पसंद नहीं करते थे। ये बात भी जगजाहिर थी। इसके अलावा केसरी लालू प्रसाद यादव, कांशी राम और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के साथ महागठबंधन करना चाहते थे, जबकि कांग्रेस उस वक्त भी खुद को पूरे देश का नेतृत्व करने वाली पार्टी मानती थी और गठबंधन में उसकी खास रुचि नहीं थी। लोकसभा चुनाव हारने के बाद अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रहे ऊंची जाति के कई कांग्रेसी नेताओं को केसरी के विचार और हतोत्साहित कर रहे थे। लेकिन जब केसरी ने कांग्रेस के ‘मंडलीकरण’ की बात कही तो पानी सिर से ऊपर चला गया, क्योंकि उन्हें लगा कि अब वो संगठन में भी अपनी जगह खोने वाले हैं। केसरी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे और मामूली पृष्ठभूमि से आने वाले केसरी ने गर्व से कहना शुरू कर दिया वो पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं ने उन्हें सर्वोच्च पद तक पहुंचाया है। कोलकाता में सितंबर 1997 में हुए संगठनात्मक चुनाव को कांग्रेस के अंदर और बाहर के लोगों ने हल्के में लिया था, लेकिन केसरी को हमेशा ये ग़ुमान रहता था कि वो एक चुने हुए पार्टी अध्यक्ष है। इस कारण वो अपने अध्यक्ष पद को बहुत गंभीरता से लेते थे। ऐसा लगता था वो अपने आप को एक सामान्य पृष्ठभूमि का नेता बताकर सोनिया और नेहरू-गांधी परिवार को चुनौती दे रहे हैं। हालात और खराब हो गए जब कुछ पूर्व सांसदों ने आग में घी डालने का काम किया। उन्होंने सोनिया के सहयोगी विंसेट जॉर्ज को ये जानकारी पहुंचानी शुरू कर दी कि केसरी, सोनिया और उनके विश्वासपात्र नेताओं के खिलाफ क्या बोल रहे हैं। 1998 के आम चुनाव में शायद ऐसा पहली बार हुआ कि पार्टी अध्यक्ष को चुनाव प्रचार से दूर रखा गया। किसी भी राज्य, यहां तक कि उनके खुद के राज्य बिहार तक में उन्हें प्रचार के लिए नहीं बुलाया गया। उन्होंने जालंधर जाने की कोशिश की, लेकिन विमान अंबाला से ही लौट आया। केसरी के साथ गए गुलाम नबी आजाद ने बताया कि विमान में केसरी को सांस लेने में दिक्कत आ रही थी। उनकी सेहत को देखते हुए विमान को पालम में उतार लिया गया। नबी ने कहा, “मुझे चचा की सेहत की बहुत चिंता हो रही थी। वो बहुत दर्द में थे और उनका दम घुट रहा था।” 12वें लोक सभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए चौंकाने वाले थे। कांग्रेस को 142 सीटें मिली थी। इस चुनाव के प्रचार में सोनिया गांधी ने 130 सभाएं की थीं। इसके बावजूद कांग्रेस अपनी पारंपरिक सीट अमेठी भी नहीं बना सकी और वहां बीजेपी को जीत मिली। सोनिया अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगियों अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी की सीट तक नहीं बचा पाई थीं। अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के होशंगाबाद और नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश के नैनीताल से हार गए थे। लेकिन सोनिया के वफादारों ने झट से सारा दोष केसरी पर डाल दिया, जो प्रचार के लिए अपने घर से बाहर तक नहीं निकले थे। उन्होंने कहा कि संगठन के कमजोर होने की वजह से पार्टी को सोनिया की करिश्माई शख्सियत का फायदा नहीं मिल सका। इसके बाद सोनिया ने पार्टी की बाग-डोर अपने हाथ में लेने पर हामी भर दी। लेकिन उनकी शर्त ये थी कि केसरी बाइज्जत अपना पद छोड़ दें और सोनिया को इसके लिए आमंत्रित करें। केसरी उनकी इच्छा पूरी करने के मूड में नहीं थे। इससे सीडब्ल्यूसी के सदस्यों की बेचैनी बढ़ गई और वे सोनिया को अध्यक्ष बनाने की रणनीति बनाने के लिए बैठकें करने लगे। शरद पवार भी ‘केसरी हटाओ’ अभियान में शामिल हो गए। उन्हें मुंबई और कारोबारी जगत की तरफ से सूचना मिल रही थी कि जब तक केसरी पार्टी के अध्यक्ष रहेंगे, औद्योगिक घराने उनका समर्थन नहीं करेंगे।पवार ने प्रसाद और एके एंटनी के साथ मुलाकात की और बाद में प्रणब मुखर्जी भी इसमें शामिल हो गए। हर हफ्ते वरिष्ठ नेता छोटे समूहों में हालात का जायजा लेते थे। पवार केसरी को जल्द से जल्द हटाना चाहते थे, लेकिन एंटनी और मुखर्जी कुछ और वक्त चाहते थे। मामला बढ़ता देख, केसरी के गुट ने भी जवाबी हमला बोल दिया। सबसे पहले ये हुआ कि सीडब्ल्यूसी की बैठकें बंद हो गई। केसरी को उनके करीबियों ने सलाह दी थी कि सीडब्ल्यूसी की बैठक न बुलाएं, क्योंकि इसमें उन्हें इस्तीफा देने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन केसरी पूरी तरह आश्वस्त थे कि उनकी पार्टी के संविधान ने उन्हें इतनी ताकत दी है कि जब तक वो चुने गए अध्यक्ष के रूप में पद पर हैं, उन्हें हटाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता। आखिरकार आम चुनावों में खराब प्रदर्शन की समीक्षा के लिए 5 मार्च 1998 को सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाई गई। इस बैठक के दो नतीजे बेहद अहम थे। पहला, इसमें कहा गया कि सोनिया गांधी पार्टी में और ज्यादा सीधी और अर्थपूर्ण भूमिका निभाएं, साथ ही ये भी आग्रह किया गया कि वे संसदीय दल (सीपीपी) का नया नेता चुनने में मदद करें, जिस पद पर उस समय तक केसरी बैठे हुए थे। केसरी, मुखर्जी और पवार से खफा थे। क्योंकि मुखर्जी के कहने पर ही पार्टी संविधान में ये बदलाव किया गया था कि कोई भी पार्टी का नेता संसदीय दल का नेता हो सकता है, चाहे वो संसद (लोकसभा या राज्यसभा) का सदस्य हो या नहीं। 9 मार्च 1998 को, केसरी ने इस्तीफे की घोषणा कर दी, लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद उन्होंने अपना मन बदल लिया। केसरी ने दावा किया कि उन्होंने तो इस्तीफे के बारे में सिर्फ मंशा जाहिर की थी। हालाँकि सभी प्रमुख अखबारों ने उनके हवाले से छापा था कि केसरी ने इस्तीफा दे दिया है। ‘चचा केसरी’ के दरबारियों ने सारे अधिकार सोनिया को थाली में सजाकर देने पर उनसे नाराजगी जताई। इसके बाद केसरी ने दावा किया कि वो अपना इस्तीफा एआईसीसी की आम सभा में ही देंगे। चचा का तख्तापलट होने से एक दिन पहले, 13 मार्च को प्रसाद ने सीडब्ल्यूसी के सदस्यों के लिए एक लंच का आयोजन किया। अगले दिन, 14 मार्च 1998 को सुबह साढ़े नौ बजे सीडब्ल्यूसी के 13 सदस्य प्रणब मुखर्जी के घर पर जुटे और वहाँ एक प्रस्ताव तैयार हुआ, जिसमें कहा गया कि केसरी को तत्काल सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलानी चाहिए, जिसमें उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से अपने इस्तीफे की अनिश्चितता को दूर करना चाहिए। प्रस्ताव में कहा गया कि केसरी के इस व्यवहार से देशभर में कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बड़ी बेचैनी है और उन्हें सोनिया गांधी के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए। मुखर्जी ने ही कांग्रेस के संविधान में वो प्रावधान भी ढूंढ निकाला जिसमें सीडब्ल्यूसी को विशेष परिस्थितियों में बड़े फैसले लेने का अधिकार दिया गया था। हालांकि बाद में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने माना कि ये प्रावधान विशेष तौर पर ये नहीं कहता था कि सीडब्ल्यूसी को पार्टी अध्यक्ष को हटाने का अधिकार है। 11 बजे सीडब्ल्यूसी की बैठक हुई, केसरी ने बैठक के मिनिट्स पर आपत्ति जताई। केसरी उस वक्त बुरी तरह उखड़ गए, जब मुखर्जी ने पार्टी प्रमुख के रूप में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और सोनिया गांधी को पद संभालने का प्रस्ताव पेश किया। केसरी ने आठ मिनट के भीतर ही बैठक स्थगित कर दी और हॉल से सटे अपने ऑफिस पहुँच गए। मनमोहन सिंह, मुखर्जी, एंटनी और पटेल ने उन्हें बहुत मनाया, लेकिन वह नहीं माने। जो बदलाव के हक में थे, उन्हें इस बात का अंदाजा था। 11 बजकर 20 मिनट पर पार्टी के तत्कालीन उपाध्यक्ष प्रसाद ने बैठक की अध्यक्षता संभाली और प्रणब को संकेत दिया कि वो सोनिया को अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पेश करें। केसरी के अकेले वफादार तारिक अनवर ने इसका विरोध किया और बैठक का बहिष्कार किया। बाकी बचे हुए सीडब्ल्यूसी सदस्य सोनिया के निवास 10 जनपथ चले गए। दोपहर के वक्त कमेटी ने औपचारिक रूप से अध्यक्ष की कुर्सी सोनिया को दे दी। आनन-फानन में केसरी की नेमप्लेट हटा दी गई और इसे कूड़ेदान में फेंक दिया गया। अध्यक्ष पद से हटाए गए केसरी जब 24, अकबर रोड को छोड़कर जा रहे थे, तभी यूथ कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने उनकी धोती खींचने की भी कोशिश की। हालांकि सोनिया गांधी समेत पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इसकी जानकारी नहीं थी, लेकिन ये पल बेहद घिनौने और दर्दनाक थे क्योंकि केसरी स्वतंत्रता सेनानी और कट्टर कांग्रेसी थे। सोनिया सीडब्ल्यूसी की अध्यक्षता के लिए शाम साढ़े 5 बजे अकबर रोड पहुँची। इस मौके पर वो काफी जोशीली और विश्वास से भरी हुई लग रही थी, लेकिन जिन हालात में वो पद संभाल रहीं थी, उन्हें लेकर वो कतई खुश नहीं थीं। सीडब्ल्यूसी की बैठक खत्म होने के बाद सोनिया गांधी सीताराम केसरी के घर पहुंचीं और उन्हें एक ‘महान नेता’ बताया।