*गधे ने जब मुंह खोला*

*गधे ने जब मुंह खोला*

*-अशोक गौतम-* मैंने रोज की तरह लाला दयाराम की बरसों से बन रही हवेली के लिए सूरज निकलने से पहले अपने पुश्तैनी गधे के पोते के पड़पोते पर रेत ढोना शुरू कर दिया था। जहां तक मेरी नालिज है न गधे के पुरखों ने मेरे पुरखों से इस रिश्ते के बाबत कोई शिकायत की थी और न ही इस गधे ने मुझसे आज तक कोई शिकायत की है कि मैं सूरज के काम पर आने से पहले क्यों बड़े लोगों के बन रहे महलों के लिए रेत बजरी ढोने में इसके साथ जुट जाता हूं। और मेरे और इसके रिश्ते की घनिष्ठता को देखकर ऐसा लगता है कि आने वाले समय में इसके होने वाले मेरे होने वालों से कोई शिकायत करेंगे। वे चुपाचाप इसकी पीठ पर हवेली वालों का रेत डालते जाएंगे, वे इसके आने वाले उसे चुपचाप ढोते जाएंगे। अनादि काल से इस समाज में दो ही जीव ऐसे रहे हैं जो कभी किसीसे कोई शिकायत नहीं करते, चुपचाप अपना काम करते रहते हैं। एक गरीब और दूसरा गधा।

गधे से मैंने जैसे ही लाला दयाराम की बन रही हवेली के लिए रेते का दसवां फेरा लगावाया तो वह पहली बार अपनी कमर पकड़ बोला तो मैं चैंका। तब पहली बार पता चला कि गरीब कुछ कहे या न, पर जो गधे कुछ कहने पर आएं तो कह ही डालते हैं बिन सोचे समझे, मालिक, जरा कमर सीधी कर लेने दो। इन शोषण करने वालों की हवेलियों को रेत ढोते दृ ढोते अब तो साली कमर टूट गई, मुझे तब पहली बार पता चला कि समाज में गधा भी बोल सकता है। मतलब, ऊंचे तबके वालों ने यह अफवाह फैला रखी है कि गधों के मुंह में जुबान नहीं होती।

यार, तू तो बात भी कर सकता है? सुन कर खुशी भी हुई और हैरत भी कि तू भी जुबान रखता है! मैंने उसीके सुर में उससे पूछा, अब तक तो मैं सोचता था कि गरीब और गधे के मुंह में जुबान ही नहीं होती। दोनों इस समाज में बेजुबान आते हैं और बिन कुछ कहे, बस समाज की सहे इस समाज से चले जाते हैं, मैंने भी सोचा कि जरा आराम कर लिया जाए। वरना ये शोषण की हवेली जितनी जल्दी पूरी होगी, कोई दूसरा चूसने वाला रेत ढोने लगा देगा । मैं मन ही मन खुश होता अपने गधे को बातें करता देख उससे बातें करने में मग्न हो गया, चलो आज से कोई काम करते दृ करते बात करने वाला तो मिला। वैसे भी मुझे और मेरे गधे को सारी उम्र रेत ही तो ढोना है।

अच्छा एक बात बताओ! तुम इस देश में बातें करने वाले मेरे ही गधे हो या… आज ये चमत्कार कैसे हो गया?

हे मेरे जन्म -जन्म के मालिक! जब पानी सिर से ऊपर बहने लग जाए तो चमत्कार बहुधा हो जाया करते हैं। वैसे तो सभी गधों के मुंह में जुबान होती है पर असल में ये चालाक लोगों का फैलाया झूठ है कि गधे सब कुछ कर सकते हैं पर बोल नहीं सकते, समझ नहीं सकते। हमने भी उन्हीं का कहा सच मान लिया और मुंह में जुबान होने के बाद भी उसका प्रयोग करने से डरते रहे। असल में मालिक समझते तो हम सब कुछ हैं पर पता नहीं किस कारणवश चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। बस, इसी का फायदा ये लोग उठा रहे हैं। अच्छा एक बात कहो तो?

पूछो।

देश में जनगणना की तरह जो हम भी अपनी गधागणना करवा दें तो कैसा रहेगा!

गधागणना किसलिए?

ताकि हमें पता चल जाए कि हम इस देश में एग्जेक्ट कितनी संख्या में हैं, गधे ने कहा तो मुझे उसके इरादे नेक न लगे। अरे, हम तो इसे गधा समझते रहे और इसके दिमाग में तो… कल को हो सकता है… पेट से खाली होने के बाद भी मेरे दिमाग में कुकरमुत्तों की तरह तरह-तरह के सवाल उगने लगे। उसे लगा कि मैं कुछ सोच रहा हूं तो वह बोला, क्या सोच रहे हो मालिक? जानते नहीं, गरीब और गधे को सोचने का अधिकार नहीं, बस ढोने का अधिकार है! अच्छा, एक बात बाताओ, जो हम देश भर में गधागणना करवाने की सोच लें तो इसमें तुम्हारे हिसाब से कौन दृ कौन शामिल होने चाहिएं?

जाहिर है गधे ही होंगे! और कौन तुम लोगों की बिरादरी में शामिल होने को हामी भरेगा? सियारों, गीदड़ों का तो समाज में अपना रूतबा है।

नहीं, मेरा मतलब ये है कि गधागणना में हम चार ही टांगों वाले गधों को शामिल करें या फिर दो टांगों वाले गधों को भी? मुझे लगा आज ये गधा युगों से चुप रहने की सारी भड़ास निकाल कर रहेगा। ऐसा ही होता होगा जब युगों से दबी आवाज को दबाए रखने के सब्र का बांध टूटता होगा।

देखो, आदमी अक्ल से कितना ही खाली क्यों न हो पर वह फिर भी होता आदमी ही है।

कैसे?

उसे वोट देने का अधिकार जो है। तुम्हें है? नहीं न? यही तुम में और मुझ में एक बेसिक अंतर है मेरे हिसाब से, मैंने उसे चुप कराने की कोशिश की तो वह मुझे ही चुप कराने के इरादे से मेरे मंह पर अपना हाथ धरता बोला, अच्छा चलो, मान लेते हैं कि बिन अक्ल का आदमी भी आदमी ही होता है, तो फिर उसे गधा क्यों कहते हैं वे लोग?अच्छा चलो, दो घड़ी को मान लो, अगर तुम लोगों की तरह हम गधागणना करवा ही दें तो यह जाति- धर्म के आधार पर भी होनी चहिए कि सीधी ही? गधा कहीं का! जातियां आदमियों में होती हैं गधों में नहीं। धर्म आदमियों का होता है, गधों का नहीं। धर्म- जाति के आधार पर लड़ने का अधिकार हमें है, गधों को नहीं। फिर बोलता है कि मैंने चुप कराने के इरादे से उसे घूरते पूछा, अच्छा चल बता, तू किस जात का है? तू किस धर्म का है? अरे पगले, गधों की न कोई जात होती है न कोई धर्म! वे केवल और केवल गधे होते हैं। पर तू ये गधागणना करने की आखिर सोच क्यों रहा है? ये सड़ा आइडिया तेरे थके दिमाग में आखिर आया कहां से? भला इसी में है कि बिन मुंह खोले देश का भार उठाता जा और जो रूखी सूखी मिले उसे खाता जा। तेरे और मेरे सतियुग में भी दिन नहीं बहुरने वाले। चाहे कितने ही गरीबी उन्मूलन के कार्यक्र्रम क्यों न चला लिए जाएं। गरीबों और गधों के कल्याण के लिए इस देश में जितने भी कार्यक्रम चलें हैं उनसे आज तक तो दिन हवेली वालों के ही बहुरे हैं मेरे दोस्त! कह मेरा गला भर आया।

ताकि पता चल जाए कि अपने देश में आखिर हम हैं कितने! कह उसने जोर का ठहाका लगाया तो लगा मानों किसीने मेरी जुबान पर ताला जड़ दिया हो।

क्यों, अब क्या हो गया मालिक? घिग्घी बंध गई क्या?

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तू गधागणना के बारे में सोचना छोड़ कुछ और नया करने के बारे में सोचे?

और क्यों सोचा जाए? इस देश में गिनती सबसे जरूरी है। देश आंकड़ों के सहारे ही तो चला है मालिक! यहां सब आंकड़ों का खेल है। जिसकी गिनती ज्यादा, कुर्सी पर उसीका राजा! अब समझा बंदे के दिमाग में क्या चल रहा है? इसीलिए अपनी गणना करवाने के चक्कर में है तो मैंने सीधी बात की, तो तू ये क्यों नहीं कहता कि तू चुनाव के समय गधा समीकरण के आधार पर सीटों की मंशा पाले है। तू चाहता है कि सरकारी नौकरियों में उसके बाद तुझे भी आरक्षण मिले। तू भी रेल रोके, तू भी हाइवे पर जाम लगाए। अपनी गणना के बाद तू सरकार में अपना हिस्सा चाहता है, तो वह सामने से लाला को आता देख कमर सीधी करता बोला, मालिक, वो देखो लाला आ रहा है। पर तुमने ये कैसे सोच लिया हम सरकार में उसके बाद अपने हिस्से की मांग करेंगे? वहां ता हम… लादो जल्दी मेरी पीठ पर रेत वरना…

(जाने-माने साहित्यछकार व व्यंगकार। 24 जून 1961 को हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला की तहसील कसौली के गांव गाड में जन्म। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से भाषा संकाय में पीएच.डी की उपाधि। देश के सुप्रतिष्ठित दैनिक समाचर-पत्रों, पत्रिकाओं और वेब-पत्रिकाओं निरंतर लेखन। सम्पंर्कः गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन, 173212, हिमाचल प्रदेश)