कॉम्पीटीशन की दौड़ और कोचिंग का सच…
-ऋतुपर्ण दवे- काश दौलत से सपने भी खरीद पाते? लेकिन यह न सच है और न हो सकता. फिर भी एक अंधी दौड़ में एक अनजान सफर पर चल पड़ा हर आम और खास इसी दौलत के बलबूते अपनी संतान को सपनों के उस तिलिस्म तक पहुँचा ही देता है जो पूरी तरह से उसकी प्रतिभा और क्षमता पर निर्भर होती है. दरअसल अभिभावक कोजो तैयारी बचपन से करनी चाहिए वो संतान के वयःसंधि में पहुँचने पर करता है. उसे लगता है कि दौलत ही वह सहारा बचा है जो उसकी संतान को सुखद भविष्य दे सकता है. बस यही सपना नौनिहालों की ब्रॉन्डिंग के लिए दो-ढ़ाई दशक से कथित ठेकेदार बने कोचिंग संस्थान और उनके शानदार शो रूम कीफर्राटेदार अंग्रेजी बोलती रिसेप्शनिस्ट और खुशबूदार एयरकंडीशन्ड कमरे में बैठा संचालक भी दिखाता है. लोग खुद-ब-खुद ऐसे सब्ज बाग की गिरफ्त में आ जाते हैं. अभिभावक भ्रमित हो वही मान बैठता है जो कॉर्पोरेटर बना नयी विधा का उद्योगपति कहता है.
कोचिंग ले रहे नौनिहालों का स्याह लेकिन कड़वा सच भी जानना जरूरी है. सूचना के अधिकार से प्राप्त एक जानकारी बेहद गंभीर और चिन्ताजनक है. अनेकों सवाल खड़ा करती है. सच सामने है बस पुनरावृत्ति न हो.काश ऐसा हो पाता क्योंकि इस बावत कोई प्रभावी कार्रवाई हो पाई हो ऐसा भी नहीं दिखता. आगे उत्तर मिल पाएगा यह भी नहीं पता. लेकिन सच यही है कि 2011 से 2019 तक यानी महज 8 सालों में अकेले राजस्थान के कोटा शहर के विभिन्न कोचिंग संस्थानों के 104 छात्रों ने आत्महत्या की जिनमें 31 लड़कियाँ भी हैं. जान देने वाले मेडिकल और इंजीनियरिंग की कड़े कॉम्पीटीशन की तैयारियों में जुटे थे जिसमें लाखों लोगों का रेला होता है. नीमच के चन्द्रशेखर गौड़ को कोटा पुलिस ने जानकारी देकर बताया है कि 2011 में 6, 2012 में 9, 2013 में 13, 2014 में 8, 2015 में 17, 2016 में 16, 2017 में 7, 2018 में 20 और 2019 में 8 ने आत्महत्या की. मरने वालों की उम्र 15 साल से 30 साल के बीच थी. ये राजस्थान, बिहार, हिमांचल प्रदेश, असम, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र, झारखण्ड, केरल, गुजरात, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर और तमिलनाडु यानी देश के हर क्षेत्र से थे.
आरटीआई के जवाब में मौत के कारणों का कोई जवाब नहीं दिया गया. जाहिर है इसके पीछे मृतकों पर मानसिक दबाव बड़ी वजह रही होगी.अकूत धन खर्च के बाद भी अभिभावकों की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाना वजह हो सकती है. अवसाद और कुण्ठा ने दूर बैठे बच्चे को उस स्थिति में पहुँचा दिया होगा जहाँ उसकी मनःस्थिति को पढ़ने और समझने वाला कोई नहीं था. सैकड़ों मील दूर बैठे माता-पिता को काश पता हो पाता कि कोचिंग कर रही संतान उसके कितने अनुकूल है या प्रतिकूल है. कॉम्पीटीशन की होड़ और दौड़ में क्या केवल प्रतिस्पर्धी शिक्षा के साथ मानसिक परिपक्वता और जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ पर बच्चों को असल देखभाल की अभी ही जरूरत है, इसे भी समझना होगा.बस यही कमीं या दूरी घर से दूर एक अनजान जगह छोटे से कमरे में कैदी सदृश्य जीवन जी रहे उन्मुक्त हवा में जीने के आदी बच्चों के मस्तिष्क पर क्या असर डालती है, माँ-बाप या अभिभावक को पता नहीं होता. दुर्भाग्यवश हादसा होने के बाद सिवाय पश्चाताप के कुछ बचता नहीं है. देश में न जाने कितनों के साथ साथ ऐसा हुआ इसका कोई सही डेटा भी नहीं है. किसी की खून, पसीने की कमाई, तो किसी का कर्ज में लिया गया पैसा तो मिट्टी में मिला ही लेकिन उसके जिगर का टुकड़ा भी छिनने का दर्द ताउम्र भारी पड़ गया. हाल के वर्षों की ऐसी अनेकों घटनाओं ने यही सवाल पैदा किया है.
थोड़ा पीछेमुड़ना होगा. 15 से 20 साल पहले कोचिंग का मतलब व्यक्तिगत रूप से किसी विद्यार्थी की मदद थी. अब यह सेक्टर संगठित इण्डस्ट्री का रूप ले चुका है. अनुमानतः अभी यह नया सेक्टर कम से कम 100 से 200 अरब डॉलर के बीच कारोबार करता है. उससे भी बड़ा सच कि इसमें सबसे ज्यादा योगदान उसी मध्यम वर्ग का है जो पहले ही अपनी आय बढ़ाने को लेकर बहुत जूझता रहता है. एसोचेम के एक सर्वे के अनुसार मेट्रोपोलिटन शहरों में प्राइमरी स्कूल तक के 87 प्रतिशत और हाईस्कूल के 95 प्रतिशत बच्चे स्कूल के अलावा कोचिंग का सहारा लेते हैं. वह भी तब, जब इस स्तर पर नौकरी के लिए कॉम्पीटीशन जैसी कोई बात ही नहीं. क्या यह प्रवृत्ति उन सरकारी और प्राइवेट स्कूलों पर तमाचा नहीं जहाँ उनके बच्चों के बुनियाद की ठेकेदारी भी कोचिंग पर हो?
सब जानते हैं कि कोचिंग संस्थान कोई रेडीमेड साँचे नहीं जहाँ पहुँचते ही बच्चे ढ़ल जाएँ. अभिभावकों को भी ऐन वक्त पर कोचिंग सूझती है. काश इसी सच को सच्चाई से समझ, पहले ही प्रतिस्पर्धा में भेजे जाने वाली संतान की योग्यता और दक्षता को अपने स्तर पर परख कर तराशने में जुट गए होते तब यही कोचिंग वाकई में उन्हें वांछित सांचे में ढ़ालने को अनुकूल होतीं. अच्छी शिक्षा जरूरी है, उसके लिए संसाधन भी अच्छे होने चाहिए. लेकिन शिक्षा दान का मकसद पवित्र होना चाहिए, वस यही नहीं है. देश भर में कोचिंग संस्थानों के फैले मकड़जाल में 90 से 95 प्रतिशत अभिभावक अभिमन्यु की भाँति चक्रव्यूह में उलझ तो जाते हैं लेकिन निकलने तक जो हश्र होता है वह सिवाय उनके कोई और जानता भी नहीं है. ग्लानिवश अपने मर्म और दर्द कोकिसी से कह भी नहीं पाता. इसे समझना होगा, भ्रम को तोड़ना होगा कि कोचिंग ही कॉम्पीटीशन के साँचे में ढ़ालने का जरिया नहीं बल्कि कोचिंग में ढ़ालने के लिए घर से ही तैयारी हो.
इस सच को भी समझना ही होगा. आम आदमीं का ऊंचा लक्ष्य और बड़ा सपना अच्छी बात है. लेकिन उसे केवल पैसों से कोचिंग के दम पर पूरा करने का भ्रमबहुत बड़ा धोखा है. पुराने जमाने में न कोचिंग थे न पढ़ाई के लिए आज जैसे साधन, पर्याप्त सामग्री और गूगल जैसा सहायक. तब भी लोग बड़े-बड़ेकॉम्पीटीशन में सफल होते थे. लालटेन, दिया, ढ़िबरी, लैम्प पोस्ट के नीचे पढ़कर देश में ऊँचे पदों तक पहुँचे ढ़ेरों लोगों के जीवन्त उदाहरण हैं. माना कि तब प्रतिस्पर्धा ऐसी नहीं थी लेकिन तब भी तो सफल होने की आज जैसी ही चुनौती थी. जो जितनीभी मदद या कोचिंग मिलती थीवह इलाके तक ही सीमित थी. स्थानीय गुरूजन, ऊंची कक्षाओं के विद्यार्थी, पास, पड़ोस के बड़े अधिकारी जिनकी टिप ही काफी होती थी.
आज देश का सबसे बड़ा कॉम्पीटीशन सिविल सर्विस है. इसके कई-कई कोचिंग संस्थानों में सेलेक्टेडएक ही प्रतिभागी की तस्वीर दिख जाती है. कहने की जरूरत नहीं कि माजरा क्या है. सिविल सेवा के एक सफल उम्मीदवार की बातें समझनी होगी जो कहता है कि ऐसी बहुत सी कोचिंग्स को जानता हूं जिनका नाम है, बहुत भीड़ है पर पढ़ाई कुछ भी नहीं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं कि परीक्षा में आंकलन किन चीजों का होता है. इनका मकसद बस पैसे कमाना और बेवकूफ बनाना है. जाहिर है कोचिंग को लेकर सच कम भ्रम ज्यादा है. लेकिन बड़ी सच्चाई भी जाननी चाहिए कि सेल्फ स्टडी से जो आत्म विश्वास बनता है उसमें खुद सवालों से जूझना और उत्तर तलाशने की सीख मिलती है. यह सफलता का रास्ताबनाने में सहायक है. यकीनन खुद के बनाए रास्ते पर कोई कैसे भटक सकता है?
कॉम्पीटीशन के रास्तों की तकलीफों से निपटने खातिर तमाम वैकल्पिक व सर्वसुलभ साधन भी तो हैं. बेहद गुणवत्ता पूर्ण सामग्री, तौर तरीकों को सिखाने वालीतमाम ऑनलाइन सुविधाएँ भी हैं जो काफी सस्ती हैं. समय और धन दोनों की बचत के साथ घर बैठे कोचिंग हासिल करने के तरीकों से ईमानदार तैयारियों का भी रास्ता बनता है. बस जरूरत है बिना भटके इस पर बढ़ते जाने की.यह जितना अभिभावक को समझना है उतना ही कॉम्पीटीटर को भा समझना होगा. निश्चित रूप से आने वाले समय में पूरी तरह से सेल्फ स्टडी का वो दौर भी आएगा जिसमें कॉम्पीटीशन के लिए प्रतिभागी खुद ही अपना रास्ता बनाकर सफलता का परचम गाड़ते नजर आएंगे. बस जरूरत है इस बारे में थोड़ा जागरूक होने की
हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…