दशहरा पर विशेष : इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का पर्व है विजयदशमी…
इक्ष्वाकु का संबंध सनातन धर्म के हिन्दू, जैन और बौद्ध पंथों के जनक से है जिसका शाब्दिक अर्थ ईख से आता है। यह इक्ष्वाकु जैन धर्म में रिषभदेव बौद्ध में सुजाता जो 24 बुद्धों में 12वे बुद्ध से संबंधित हैं और हिन्दू धर्म में रघुवंश के उद्भव से संबंधित है। पितृपुरुष को लेकर पौमाचरिता, रामायण जैसे विभिन्न आख्यान मानव जीवन के उत्कर्ष के प्रेरक रहे हैं। हमारी पंच ज्ञान और पंच कर्मेन्द्रियां को पराजित करने का प्रेरक है दशहरा। राम दशरथ की संतान है जो हमारे भीतर प्रस्फुटित आंतरिक क्षमता का प्रतीक है। विजयदशमी अपने ही भीतर सुप्त सात चक्रों पर आसीन 9 उर्जा और बाहरी शक्ति नौगुना अधिक आंतरिक क्षमता के बोध से सर्वत्र विजय की अवधारणा है। ईख का संबंध अमृत तुल्य मधुरता से है जो संस्कृतियों के पोषक कामदेव के धनुष का प्रतीक है। काम से कलासृजन और कला से जीवनसाध्य की प्राप्ति ही मोक्ष का कारक रही है। कामदेव हमें इच्छाओं और आकांक्षाओं के लिए प्ररित करते हैं जबकि यमराज हमें दायित्वबोध से। यमराज हमारे रिणों (कर्ज) का हिसाब रखते हैं जिन्हे चुकाने पर पुनर्जन्म होता है। इसलिए हम रिण से बंधे हैं और मोक्ष या मुक्ति का उद्देश्य रिण से मुक्त होना है।
एक ओर जहां भोग का संबंध कलाओं के उन्नयन के परहित से संबंधित है तो दूसरा उससे मुक्त परजीव के प्रति करुणा से प्रेरित उपवास से। एक में यज्ञ की प्रधानता है तो दूसरे में त्याग की।सनातन का एक पंथ जहा उत्स अर्थात फीड पर विश्वास करता है तो वहीं दूसरा व्रत अर्थात फास्ट पर। एक में आत्मा की प्रमुखता है तो दूसरे में जीव के अस्तित्व की। दशहरा इसी चिन्तन से उत्पन्न आम जीवनशैली दृष्टि को अध्यात्म से जोड़ता है।
आज हम अभिवादन स्वरुप राम-राम करते हैं लेकिन उससे विमुख कर्म का उत्तरदायित्व नहीं लेते। इस तथ्य का भान राम की करुणा में मिलती है जो सूर्यवंश से संबंधित होते हुए भी रामचन्द्र कहलाये। कहते हैं कि सीता के साथ हुए व्यवहार से दु:खी राम ने कहा कि जैसे सूर्य को ग्रहण लगता है वैसे ही सीता के बिना उनके जीवन में लगे ग्रहण के कारण उन्होंने रामचन्द्र स्वीकार किया।
मनुस्मृति अनुसार देवताओं ने राजाओं के रुप में इसलिए जन्म लिया ताकि मत्स्य न्याय के विपरीत समाज निर्माण हो सके। राजनीति में शकि्तशाली विजय प्राप्त करता है जबकि राजधर्म में शक्तिहीन को भी संस्कृति में सम्मान मिलता है। राजधर्म में सिंहासन से अधिक महत्वपूर्ण राज्य होता है जबकि राजनीति में सत्ता की प्रधानता है। हिन्दू पुनरुत्थान के बावजूद राजनीतिज्ञ राजधर्म की इस मापदण्ड को अस्वीकार करते हैं। चूंकी व्यवस्था शकि्तशाली लोगों के लिए बनाई गई है इसलिए वे धनवानों की मदद करते हैं, जो गुप्त धन से राजनीतिक दलों की मदद करते हैं ताकि वे बिना किसी उत्तरदायित्व के सत्तासुख प्राप्त कर सकें। जब कि राजधर्म से प्रेरित राजनीतिक इस प्रकार अर्जित धन पर राजा नृग की तरह आचरण करते हैं। गौरतलब है कि अनजाने में एक व्यक्ति से चोरी के शापवश उन्हें छिपकली बनना पड़ता है। इसलिए आज मतदाता से अधिक राजनीतिज्ञ को जवाबदेही के लिए जागरुक होने की आवश्यकता है।
कबीलियाई, वर्ण, राजशाही और लोकतांत्रिक सभ्यता की यात्रा में मानवीय मूल्यों के मापदण्ड बदले हैं। जहॉं राजा के न्यायतंत्र से समाज संचालित होता था वहीं लोकतंत्र के दौर में न्यायविद, विज्ञ, राजनीतिक, विद्यार्थी वैज्ञानिक जैसे विचार विकल्पों की विविधता है। इसने हमारी धर्म, अर्थ और कला को देखने की दृष्टि प्रभावित की है। ईश्वर की सूक्ष्मता को आत्मबोध से उत्पन्न विचारों से साकार करने का स्थूल स्वरुप मिला। इसने दिगंबर और पैगम्बर विचारों की धारणाओं को पुष्ट किया। राम-रावण युद्ध की व्याख्या करते हुए तुलसीदास कहते हैं –
ईस भजनु सारथी सुजाना, विरति चर्म संतोष कृपाना।
दान परसु बुद्धि सक्ति प्रचण्डा वर विग्यान कठिन कोदण्डा।
अमल अचल मन त्रोण समाना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।
कवच अमेर विप्र गुरु पूजा, एहि सम विजय उपाय न दूजा।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल बिवेक दम परहित घोरे, क्षमा कृपा समता रजु जोरे।
सखा धर्ममय अस रथ जाके जीतन कह न कतहु रिपु ताके।
अर्थात् इस युद्ध में राम के अस्त्रों का वर्णन करते हुए तुलसीदास कहते हैं कि जिनका निर्मल और अचल मन तरकस के समान, शम(मन का वश में होना) अहिंसादि यम और शौचादि नियम बहुत से बाण है। ब्राम्हण और गुरु का पूजन अभेष कवच है इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं, सत्य और शील(सदाचार) उसकी बजबूत ध्वजा तथा बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार ये चार उसके घोड़े हैं जो क्षमा, दया और समतारुपी डोरी से रथ में जुते हुए हैं।
इस प्रकार के युद्ध को हम अपने तरीके से परिभाषित का हिंसक व्याख्या करते रहें है जबकि उसके मूल में अनेक गढ़ रहस्य छिपे हैं। इस संबंध में रविषेण रचित पद्मपुराण के 76वें पर्व में रावण की मृत्यु के बारे में बताया गया है। जैन धर्म अनुसार 7129 वर्ष पूर्व केवली भगवान श्रीराम का जन्म मुनि सुव्रतनाथ तीर्थंकर के काल में हुआ था। राम, लक्ष्मण और रावण क्रम से आठवे बलभद्र, नारायण और प्रति नारायण थे। बलभद्र और नारायण में असीम प्रीति जबकि नारायण और प्रतिनारायण में वैर होने के कारण लक्ष्मण रावण को और श्रीकृष्ण जरासंध का वध करके अर्द्ध चक्रवती बनते हैं। वस्तुत: मानवीय कल्याण के लिए रामायण एक परंपरा है जो पारिस्थितिकी तंत्र को स्वीकारते हुए नित नये प्रतिमान गढ़ती है।
प्रतिवर्ष निरंतर बुराइयों पर अच्छाई के विजय प्रतीक दशहरा में निरंतर वध के बाद रावण का अमरत्व के चलते आज निजी महत्वकांक्षाओं के चलते रुस-यूक्रेन, इजराइल-हमास के युद्ध में निर्दोष जनसमुदाय की बलि दी जा रही है। क्या कभी ऐसा समय आयेगा जब अच्छाई के इस विजय पर्व में किसी की पराजय न हो। क्यों न हम किसी को पराजित करने की बजाय उस बुराई (दोष) को समाप्त करने का आत्मावलोकन करें जो दहन पश्चात अपनी प्रत्येक विषबेल छोड़ जाती है। क्यों बुराई के प्रतीक रावण को आज प्रत्येक कदम पर बिठा दिया गया है? यह वही बिन्दु है जहां से हम बुराई की जड़ ढू़ढ़ सकते हैं।
-राकेश कुमार वर्मा-
हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…