पर्यटक को आकर्षित करते हैं श्रीलंकन गृहयुद्ध के स्थल…
मुलाइतिवू समुद्र तट पर आज भी रेत में जगह-जगह गड्ढे दिखाई देते हैं। मीलों दूर तक फैली श्रीलंका की उत्तर-पूर्वी तटरेखा पर ये गड्ढे 5 साल पहले अस्थायी शिविरों के तौर पर काम में आए थे। हर तरफ कपड़े, सूटकेस, रेत से भरे बोरे, हार्ड डिस्क ड्राइव तथा बारिश से खराब हो चुकी फोटो एलबम्स आदि सामान बिखरा है।
मई 2009 में खत्म हुए 26 साल लम्बे गृहयुद्ध के अंतिम सप्ताहों में 1 लाख से अधिक तमिल नागरिक सेना तथा लिट्टे (लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम)विद्रोहियों की गोलीबारी के बीच मुलाइतिवू में फंसे रहे थे। श्रीलंका के उत्तरी तथा पूर्वी हिस्सों में स्वतंत्र तमिल राष्ट्र बनाने के लिए छेड़ी गई लिट्टे विद्रोहियों की असफल लड़ाई का वह अंतिम पड़ाव था।
अनेक शरणार्थी महीनों तक एक शिविर से दूसरे तक अपने सामान को ढोते रहे थे। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि इस दौर में ही करीब 40 हजार नागरिकों की जान गई। इस तट के कुछ हिस्से अब जनता के लिए खोले जा चुके हैं जबकि अन्य पर सिपाही अभी भी पहरा दे रहे हैं जहां से बारूदी सुरंगें तथा बम हटाने का काम बाकी है।
पूर्व युद्ध स्थलों पर जगह-जगह सरकार ने स्मारक तथा संग्रहालय बना दिए हैं। सेना का कहना है कि ये स्मारक देश से आतंकवाद का खात्मा करने वालों की याद में बने हैं जबकि कुछ लोग इनकी आलोचना करते हैं कि ये सरकार की जीत का प्रचार करने के लिए बनाए गए हैं जिनसे देश के सिंहलीज बहुलों तथा तमिल अल्पसंख्यकों में कटुता दूर नहीं हो सकेगी।
उदाहरण के लिए पुद्दुकुदिरिप्पू में एक सिपाही का विशाल बुत हाथों में देश का झंडा तथा बंदूक लिए जमीन से उठता है तथा साथ लगते एक संग्रहालय में विद्रोहियों की राइफलें, रॉकेट, बम, गोला-बारूद, बूट प्रदर्शित हैं। इसे चलाने वाले सिपाहियों का कहना है कि यह सब लिट्टे की ताकत का अंदाजा लगाने के लिए रखे गए हैं।
एक दीवार पर बच्चों को उठा कर ले जाते, बीमारों की देखभाल करते, पानी पहुंचाते, बुजुर्गों की सेवा करते तथा दवाइयां वितरित करते सिपाहियों की तस्वीरें लगी हैं। संग्रहालयों में उन हजारों-लाखों तमिल नागरिकों का कोई जिक्र दिखाई नहीं देता है जिनकी आज तक कोई खोज-खबर नहीं है।
कई लोग विद्रोहियों के साथ ही सैन्य बलों पर भी मानवाधिकार उल्लंघनों तथा युद्ध अपराधों का आरोप लगाते हैं। बच गए लोगों के अनुसार लिट्टे ने नागरिकों को मानव कवच के तौर पर इस्तेमाल किया जबकि श्रीलंकन सेना ने जानबूझ कर अस्पतालों तथा आश्रय स्थलों पर बमबारी की। कैदियों को योजनाबद्ध ढंग से मौत के घाट उतार देने के इल्जाम भी सिपाहियों पर लगे।
सरकार ने इन आरोपों की जांच के लिए कोई आयोग नहीं बैठाया बल्कि पुद्दुकुदिरिप्पू वार म्यूजियम यह संदेश देने की कोशिश करता है कि सेना ने पहली लड़ाई के दौरान ही 1,35,000 नागरिकों की रक्षा की। युद्ध स्थलों तथा उसकी याद में बने स्मारकों तथा संग्रहालयों की सैर करने के लिए अब बड़ी संख्या में पर्यटक जरूर पहुंचने लगे हैं।
आतंक के खात्मे को प्रदर्शित करता एक युद्ध स्मारक किलीनोच्ची में भी बना है जिसमें एक बारूदी गोले का खोल, दरार युक्त एक विशाल पत्थर और धातु से बना कमल दिखाई देता है। साथ ही लिखा है- यह स्मारक अविजित श्रीलंकन सेना तथा शांति स्थापित करने के उसके प्रण को प्रदर्शित करता है।
करीब ही एक विशाल पानी की टंकी गिरी हुई है जहां लगी एक पट्टी पर लिखा है, यह टंकी कभी इलाके के लोगों के लिए पानी का एकमात्र स्रोत हुआ करती थी जिसे श्रीलंकन सेना के जनवरी 2009 में किलीनोच्ची में प्रवेश से ठीक पहले लिट्टे विद्रोहियों ने गिरा दिया था। आज यह आतंकवाद की निरंकुशता का मौन गवाह है।
करीब एक दुकान पर एक यादगार के तौर पर कुछ खरीद रही राजधानी कोलम्बो से आई एक पर्यटक जेना का कहना था कि उन जैसे पर्यटकों के लिए आतंकवादियों की मचाई तबाही को देखना अच्छा है। पर्यटक वाद्दुवाकल कॉजवे के साथ लगते कैफे टैरेस पर कॉफी पीने का आनंद भी ले सकते हैं। वहां से उस लैगून का नजारा दिखाई देता है जहां गृहयुद्ध का खात्मा हुआ था। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, मरने से बचे तमिल गोलियों की बौछार तथा पानी में तैरती लाशों के बीच में से गुजरते हुए सेना तक पहुंच सके थे। जबकि लैगून पर लगी एक पट्टिका कुछ और ही कहानी बयान करती है-महान सेना के बहादुर सिपाहियों ने लैगून के पश्चिम तथा पूर्व की तरफ से आगे बढ़ते हुए निर्दोष नागरिकों को नुक्सान पहुंचाए बिना आतंकवादियों का खात्मा किया।
हिन्द वतन समाचार की रिपोर्ट…