विश्व पर्यावरण दिवस पर::–

विश्व पर्यावरण दिवस पर::–

पर्यावरण विनाश और संस्कार हीन विकास…

जले विष्णुः थले विष्णुः विष्णुः पर्वत मस्तके…

ज्वाला माला कुले विष्णुः सर्वे विष्णुमयं जगत्…

कण-कण में जगत् नियन्ता विष्णु की व्यापकता में दृढ आस्था और विश्वास रखते हुए पर्वत,नदी,वृक्ष, यहाँ तक कि सभी जीवों, पशु पक्षियों के प्रति आदर सत्कार और पूजन करने वाले देश में भी यदि, न केवल पर्यावरणीय संकट अपितु भयावहता दृष्टिगोचर हो रही है तो निश्चय ही यह एक चिन्तनीय विषय है।

“One Planet One Future ” की संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत अवधारणा भारतीय संस्कृति और संस्कार में “वसुधैव कुटुंबकम् ” के उद्घोष के रूप में रची बसी है।सबके संवर्धन से इतर और पूर्व अपने ही संवर्धन का निष्कर्ष पाश्चात्य सभ्यता का प्रमुख उत्पाद है।
इसी अविवेक पूर्ण अवधारणा ने पूंजीवाद और बाजारवाद को जन्म दिया जो कालांतर में अंध बाजारवाद के भयावह रूप में हमें ही विनाश की ओर ढकेल दे रहा है। आज के तथाकथित विकास के अधिकतर मापक और मानदण्ड वस्तुतः हमारे सुनिश्चित विनाश-यात्रा के मील के पत्थर ही है।अधिकाधिक कार्बन एवं विनाशक गैसों के उत्सर्जनोन्मुख विकास की ओर हम जान बूझ कर तेजी से बढ़ रहे हैं। अपने को ठन्ढा रखने के लिए धरती माता को निरन्तर और अधिकाधिक तपाते जा रहे है। बिना यह सोचे कि हमारे वंशज इस ताप वृद्धि से कितना तपेंगे।

परिष्कृत सुविधायुक्त कारों, वातानुकूलन आदि सम्बन्धी अनेक आधुनिक उपकरणों ( जो निश्चित रूप से पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं) के अधिकाधिक उत्पादन को प्रगति का मापक मानना आधुनिक सभ्यता के भ्रम और दिशाहीनता को ही दर्शाता है। मेरे विचार से पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य के प्रतिकूल उत्पादन को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) से न केवल घटा देना चाहिए अपितु इसे नकारात्मक रेटिंग देकर विनाश रोकना चाहिए ।स्वास्थ्य और पर्यावरण विनाशक उत्पादों को विकास के रूप में संगणित करना न केवल भ्रामक है अपितु स्वयं को छलना है। नीति नियंताओं पर, अगली पीढ़ी को (वर्तमान मतदाता न होने पर भी) अवश्यंभावी विनाश से बचाना, अपरिहार्य दायित्व है।

वास्तविक विकास वही है जो स्व के साथ पर ( दूसरों) के लिए भी कल्याण प्रद हो। विश्व समुदाय की सोंच “वसुधैव कुटुंबकम् ” के संस्कार से अनुप्राणित हुए बिना स्वयं की विनाश गाथा का गान आने वाले सैकड़ों साल तक विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मना कर, करती रहेगी। सभ्यता को संस्कार वान होना ही पड़ेगा अन्यथा पश्चाताप और अंत तय ही है।

पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों के सीमित, संयमित और विवेकपूर्ण उपभोग के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। वर्तमान समस्या के जनक हम स्वयं और हमारा लोभ है, और इस पर अंकुश ही एकमात्र निराकरण है।समस्या का स्वरूप अब चिन्ता और चिन्तन की सीमा से बहुत विकराल हो चुका है। अब केवल कुछ गोष्ठियों, बैठकों और रस्मी अदाकारियों से आगे बढकर संगठित, सुनियोजित, आपातकालीन, ईमानदार प्रभावी कार्य (Action) करने का समय है।अन्यथा ईश्वर भी शायद हमारी रक्षा करने में असमर्थता व्यक्त कर दे।

प्रकृति के स्पष्ट संकेतों की अवहेलना मानव जाति और पर्यावरण पर निरन्तर भारी कहर बरपा रही है। कोविड 19 या कोरोना भी प्रकृति का मुखर संदेश ही है। जीवन जीव + वन ( प्राणी एवं वनस्पति जगत) के सुखद संयोजन के बिना निरापद हो ही नहीं सकता है। अंततः मानना ही पडेगा।

“हिंद वतन समाचार” की रिपोर्ट…